Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 383
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
तं꣢ ते꣣ म꣡दं꣢ गृणीमसि꣣ वृ꣡ष꣢णं पृ꣣क्षु꣡ सा꣢स꣣हि꣢म् । उ꣣ लोककृत्नु꣡म꣢द्रिवो हरि꣣श्रि꣡य꣢म् ॥३८३॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । ते꣣ । म꣡द꣢꣯म् । गृ꣣णीमसि । वृ꣡ष꣢꣯णम् । पृ꣣क्षु꣢ । सा꣣सहि꣢म् । उ꣣ । लोककृत्नु꣢म् । लो꣣क । कृत्नु꣢म् । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । हरिश्रि꣡य꣢म् । ह꣣रि । श्रि꣡य꣢꣯म् ॥३८३॥
स्वर रहित मन्त्र
तं ते मदं गृणीमसि वृषणं पृक्षु सासहिम् । उ लोककृत्नुमद्रिवो हरिश्रियम् ॥३८३॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । ते । मदम् । गृणीमसि । वृषणम् । पृक्षु । सासहिम् । उ । लोककृत्नुम् । लोक । कृत्नुम् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । हरिश्रियम् । हरि । श्रियम् ॥३८३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 383
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
Acknowledgment
विषय - शूरवीर कौन है
पदार्थ -
जो व्यक्ति वीर होता है उसमें एक मद-सा होता है। गर्व तो अच्छी वस्तु नहीं, इस का एक उत्तम रूप 'गौरव' होता है। आत्मसम्मान व [Self-respect] हेय वस्तु नहीं । ('स्वं महिमानम् आयजताम्') अपनी महिमा का आदर करो, यह वेद का उपदेश गौरव को ही अनुभव करने की बात कह रहा है । सो मनुष्य में एक मद तो होना ही चाहिए, परन्तु कौन सा? प्रभु कहते हैं कि (ते) = तेरे (तम्) = उस (मदम्) = मद को हम (गृणीमसि) = स्तुत करते हैं, उत्तम समझते हैं जो -
१. (वृषणम्) = बरसनेवाला है। खूब दान देनेवाला है। एक कायर व्यक्ति दान देने से घबराता है, वीर ही दान दे पाते हैं। २.(पृक्षु) = संग्रामों में (सासहिम्) = शत्रुओं का पराभव करनेवाला है। यहाँ संग्राम से अभिप्राय हृदयस्थली पर निरन्तर चलनेवाले काम-क्रोधादि से संग्राम का है। इस संग्राम में जो इन वासनाओं को जीतकर संयमशूर बनता है उसी का मद प्रशंसनीय है। ३. (उ) = और (लोककृत्लुम्) = जो मद लोकों का निर्माण करता है, उसकी हम प्रशंसा करते हैं। निर्माणात्मक कार्यों में, परोपकार के कार्यों में लगा हुआ व्यक्ति ही शूरवीर है। और अन्त में (अद्रिवः) = वज्रतुल्य शरीरवाले शूर हम तेरे उसी मद की प्रशंसा करते हैं जोकि ४. (हरिश्रियम्) = दुःखी मनुष्यों से आश्रयणीय होता है। लोग कष्टों में होते हैं, तुझे रक्षा करने में शूर जान तेरी शरण में आते हैं तेरा श्रयण करते हैं और तू 'हरिश्रीः' बनने में जो तू मद का अनुभव करता है, उसकी हम प्रशंसा करते हैं ।
इस प्रकार के ‘दानशूर, संयमशूर, निर्माणशूर, व परोपकार और शरणागत रक्षा में शूर व्यक्ति ‘गोषूक्ति और अश्वसूक्तिन्' होते हैं। इनकी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों से उत्तम ही कथन होता है। ये अशुभ की ओर झुकी हुई नहीं होती।
भावार्थ -
प्रभु-कृपा से हम 'दान, संयम, निर्माण व शरणागत रक्षा' में शूर बनें। इसी शूरवीरता को वांछनीय समझें। इसमें समर्थ होने के लिए अपने शरीर को पाषाण व वज्र तुल्य दृढ़ बनाएँ, क्योंकि निर्बल शरीर से हम इन बातों में भी शूर न बन सकेंगे।
इस भाष्य को एडिट करें