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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 384
ऋषिः - पर्वतः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣡त्सोम꣢꣯मिन्द्र꣣ वि꣡ष्ण꣢वि꣣ य꣡द्वा꣢ घ त्रि꣣त꣢ आ꣣प्त्ये꣢ । य꣡द्वा꣢ म꣣रु꣢त्सु꣣ म꣡न्द꣢से꣣ स꣡मिन्दु꣢꣯भिः ॥३८४॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣣न्द्र । वि꣡ष्ण꣢꣯वि । यत् । वा꣣ । घ । त्रिते꣢ । आ꣣प्त्ये꣢ । यत् । वा꣣ । मरु꣡त्सु꣢ । म꣡न्द꣢꣯से । सम् । इ꣡न्दु꣢꣯भिः ॥३८४॥


स्वर रहित मन्त्र

यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये । यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः ॥३८४॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । सोमम् । इन्द्र । विष्णवि । यत् । वा । घ । त्रिते । आप्त्ये । यत् । वा । मरुत्सु । मन्दसे । सम् । इन्दुभिः ॥३८४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 384
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

गत मन्त्र में [अद्रिवः] शब्द से संकेत किया था कि शूरवीर के लिए वज्रतुल्य शरीरवाला होना आवश्यक है। प्रस्तुत मन्त्र का तो ऋषि ही 'पर्वत' है, इसने थोड़ा-थोड़ा करके तपस्या व साधना से अपने शरीर को पत्थर के समान दृढ़ बनाया है सो यह 'कण्व' है। यह (इन्दुभिः) = [विन्दुभिः] सोमकणों से (संमन्दसे) = सम्यक् आनन्दित होता है। किन सोमकणों से? १. हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! (यत् सोमम्) 
जो सोम (विष्णवि) = [विष्-व्याप्तौ] व्यापक मनोवृत्तिवाले में है। वस्तुतः शूर वही है जिसका कि हृदय विशाल है। छोटे दिलवाला कभी शूर नहीं होता।

२. (यत्) = जो (वा घ) = निश्चय से (त्रिते) = [त्रीन् तनोति] काम की विरोधी भावना सत्य को विस्तृत करता है उस त्रित में जो वीरता है, उससे तू आनन्द का अनुभव करता है।

३. (आप्त्ये) = परमेश्वर को प्राप्त करनेवालों में जो उत्तम हैं, उनमें जो वीरता है वह तेरे आनन्द का कारण होती है। और अन्त में -

४. (यद्वा) = जो निश्चय से (मरुत्सु) = प्राण - साधना करनेवालों में वीरता है, उससे तू आनन्दित होता है।

पिछले मन्त्र में दानशूर, संयमशूर, निर्माणशूर और परोपकारशूर इन चार व्यक्तियों का उल्लेख हुआ था। इस मन्त्र में उदारता [विशालमनस्कता] में शूर, ब्रह्मचर्य, अहिंसा व सत्य के पालन में शूर, प्रभु प्राप्ति में शूर और प्राणसाधना में शूर का वर्णन हुआ है। ऐसा शूर बनने के लिए ‘इन्द्र' इस सम्बोधन के द्वारा 'इन्द्रियों को वश में करना' रूप साधन का वर्णन हुआ है। बिना जितेन्द्रिय बने सोम रक्षा नहीं, और बिना सोमरक्षा के उदारता इत्यादि गुणों का सम्भव नहीं । इन गुणों के पर्वों को उत्तरोत्तर धारण करते चलने से यह 'पर्वत' नामवाला हो गया है।

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