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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 405
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त्वं꣡ न꣢ इ꣣न्द्रा꣡ भ꣢र꣣ ओ꣡जो꣢ नृ꣣म्ण꣡ꣳ श꣢तक्रतो विचर्षणे । आ꣢ वी꣣रं꣡ पृ꣢तना꣣स꣡ह꣢म् ॥४०५॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । नः꣣ । इन्द्र । आ꣢ । भ꣣र । ओ꣡जः꣢꣯ । नृ꣣म्ण꣢म् । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । विचर्षणे । वि । चर्षणे । आ꣢ । वी꣣र꣢म् । पृ꣣तनास꣡ह꣢म् । पृ꣣तना । स꣡ह꣢꣯म् ॥४०५॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वं न इन्द्रा भर ओजो नृम्णꣳ शतक्रतो विचर्षणे । आ वीरं पृतनासहम् ॥४०५॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । नः । इन्द्र । आ । भर । ओजः । नृम्णम् । शतक्रतो । शत । क्रतो । विचर्षणे । वि । चर्षणे । आ । वीरम् । पृतनासहम् । पृतना । सहम् ॥४०५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 405
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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पदार्थ -

हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिसम्पन्न प्रभो! (त्वम्) = आप (नः) = हममें (ओजः) = शक्ति को (आभर) = सर्वथा भर दीजिए। ‘ओज' वह शक्ति है जो [ ओज जव पदबतमेंम] सब प्रकार की वृद्धि का कारण हुआ करती है। यह वीर्य की भी सारभूत वस्तु है। इससे अपने को भर सकने का उपाय एक ही है कि हम भी 'इन्द्र' - इन्द्रियों के अधिष्ठाता बनें । इन्द्र की अराधना करनेवाले को इन्द्र बनना ही चाहिए । इन्द्रियों के अधिष्ठाता बनकर हम शक्ति सम्पन्न बनेंगे और उस दिन उस सर्वशक्तिमान् 'इन्द्र' के सच्चे उपासक होंगे।

हे (शक्रततो) = अनन्त प्रज्ञान व यज्ञरूप कर्मोंवाले प्रभो! (नः) = हमें (नृम्णम्) = सुख (आभर) = प्राप्त कराईये । वस्तुतः सुख को प्राप्त करने के लिए हमें भी 'शतक्रतु' बनना है। हमारे सौ के सौ वर्ष क्रतुमय-यज्ञमय बीतें। यज्ञमय जीवन होनेपर हमारा घर स्वर्ग तुल्य बन जाएगा। इससे हम फुले-फलेंगे। और यह यज्ञ हमारी सब इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला होगा।

हे (विचर्षणे) = विशेषरूप से देखनेवाले प्रभो! हमें (आवीरम्) = सब प्रकार से वह वीरता प्राप्त कराईये जोकि (पृतनासहम्) = हमें सब मनुष्यों को सह सकने योग्य बनाये, अर्थात् हममें वह शक्ति हो जोकि हमें इतना उदार बना दे कि हम अज्ञ लोगों से समय-समय पर किये जानेवाले मानापमानों को सह सकें। उनकी स्तुति - निन्दा हमें विचलित करनेवाली न हो। यह गुण-यह सहनशीलता हममें आएगी तभी जब हम 'विचर्षणि' बनेंगे- प्रत्येक वस्तु को सूक्ष्मता से देखनेवाले बनेंगे। विचारशील सदा सहिष्णु होता है।

यह ओजस्वी व सहनशील व्यक्ति सुखी जीवनवाला तो होता ही है - यह औरों के साथ मिलकर चलने से ‘नृमेध' कहलाता है और शक्तिसम्पन्न होने से ‘आंङ्गिरस' है। 

भावार्थ -

मैं जितेन्द्रिय बनकर 'ओजस्वी' बनूँ। यज्ञमय जीवनवाला बनकर सुख को सिद्ध करूँ और तत्त्वज्ञानी बनकर मानापमान व स्तुति - निन्दा में सम रहूँ।

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