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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 407
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - इन्द्रः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
सी꣡द꣢न्तस्ते꣣ व꣢यो꣣ य꣢था꣣ गो꣡श्री꣢ते꣣ म꣡धौ꣢ मदि꣣रे꣢ वि꣣व꣡क्ष꣢णे । अ꣣भि꣡ त्वामि꣢꣯न्द्र नोनुमः ॥४०७॥
स्वर सहित पद पाठसी꣡द꣢꣯न्तः । ते꣣ । व꣡यः꣢꣯ । य꣡था꣢꣯ । गो꣡श्री꣢꣯ते । गो । श्री꣣ते । म꣡धौ꣢꣯ । म꣣दिरे꣢ । वि꣣व꣡क्ष꣢णे । अ꣣भि꣢ । त्वाम् । इ꣣न्द्र । नोनुमः ॥४०७॥
स्वर रहित मन्त्र
सीदन्तस्ते वयो यथा गोश्रीते मधौ मदिरे विवक्षणे । अभि त्वामिन्द्र नोनुमः ॥४०७॥
स्वर रहित पद पाठ
सीदन्तः । ते । वयः । यथा । गोश्रीते । गो । श्रीते । मधौ । मदिरे । विवक्षणे । अभि । त्वाम् । इन्द्र । नोनुमः ॥४०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 407
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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विषय - अभ्यास
पदार्थ -
गतमन्त्र में प्रभुप्राप्ति के लिए प्रयत्न का संकेत है। वह प्रयत्न ही इस मन्त्र में प्रतिदिन के ‘अभ्यास' के रूप में चित्रित हुआ है। (यथा) = जैसे (गोश्रिते) = इस पृथिवी पर पके हुए (मदिरे) = अत्यन्त मादक (विवक्षणे) = [ to increase] प्राणशक्ति की वृद्धि के कारणभूत (मधौ) = पुष्परस पर (वय:) = पक्षी (सदिन्तः) = बैठते हैं, इसी प्रकार से (हे इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! हम (ते) = तेरे (गोश्रीते) = वेदवाणियों से सेवित (मदिरे) = उल्लास देनेवाले (मधौ) = अत्यन्त माधुर्य से युक्त-जहाँ किसी प्रकार के रागद्वेष के लिए पोषण की सम्भावना नहीं उस (विवक्षणे) = विशिष्ट [वक्षणा=नदी] नदीवाले स्थान पर (सीदन्तः) = बैठे हुए (त्वाम्अभि) = तेरा लक्ष्य बनाकर (नोनुम:) = खूब स्तवन करते हैं।
उपासना का स्थान कैसा होना चाहिए? १. जिस स्थान पर वेदवाणियों का उच्चारण हो रहा हो, २. जहाँ किसी प्रकार के रागद्वेष की सम्भावना न हो, ३. जहाँ सारी प्रकृति में उल्लास-ही-उल्लास हो ४. और नदी आदि के रूप में शान्त जल की उपस्थिति हो। भ्रमरादि भी तो ऐसे फूल पर ही बैठते हैं जो १. पृथिवी पर पूर्ण विकास को प्राप्त हुआ है, २. रसमय है, ३. हर्ष देनेवाला है ४. और प्राणशक्ति को बढ़ानेवाला है । मन्त्र में 'गोश्रीते' आदि शब्द श्लेष से दोनों अर्थों को कह रहे हैं। प्रतिदिन प्रातः उल्लिखित शान्त स्थान में प्रभु का ध्यान करते हुए हम इस निरन्तर के अभ्यास से एक दिन प्रभु को अवश्य पानेवाले होंगे। प्रतिदिन अभ्यास करनेवाला व्यक्ति ही अपने कर्त्तव्य का सु-भरण करनेवाला 'सोभरि' बनता है। प्रतिदिन प्रभु का ध्यान करते हुए यह धीमे-धीमे उस प्रभु जैसा बन पाता है। जिसका सतत ध्यान व जप करते हैं, वैसे ही तो बन जाते हैं।
भावार्थ -
प्रभु की प्राप्ति के लिए हम दैनन्दिन अभ्यास अवश्य करें।
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