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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 408
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - इन्द्रः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4
व꣣य꣢मु꣣ त्वा꣡म꣢पूर्व्य स्थू꣣रं꣢꣫ न कच्चि꣣द्भ꣡र꣢न्तोऽव꣣स्य꣡वः꣢ । व꣡ज्रि꣢ञ्चि꣣त्र꣡ꣳ ह꣢वामहे ॥४०८॥
स्वर सहित पद पाठव꣣य꣢म् । उ꣣ । त्वा꣢म् । अ꣣पूर्व्य । अ । पूर्व्य । स्थूर꣢म् । न । कत् । चि꣣त् । भ꣡र꣢꣯न्तः । अ꣣वस्य꣡वः꣢ । व꣡ज्रि꣢꣯न् । चि꣣त्र꣢म् । ह꣣वामहे ॥४०८॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमु त्वामपूर्व्य स्थूरं न कच्चिद्भरन्तोऽवस्यवः । वज्रिञ्चित्रꣳ हवामहे ॥४०८॥
स्वर रहित पद पाठ
वयम् । उ । त्वाम् । अपूर्व्य । अ । पूर्व्य । स्थूरम् । न । कत् । चित् । भरन्तः । अवस्यवः । वज्रिन् । चित्रम् । हवामहे ॥४०८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 408
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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विषय - वैराग्य
पदार्थ -
प्रभु के साथ मेल के लिएए चित्तवृत्तिनिरोध आवश्यक है। चित्तवृत्तिनिरोध का ही नाम ‘योग’ हो गया है। इस योग के प्रमुख साधन 'अभ्यास और वैराग्य' हैं। अभ्यास का उल्लेख गत मन्त्र में हुआ है। प्रस्तुत मन्त्र में 'वैराग्य' का वर्णन करते हैं। प्रकृति के प्रति राग का न होना ही वैराग्य हे। यह प्रकृति के प्रति वैराग्य तभी होगा जब हम प्रभु व प्रकृति का विवेक करेंगे। बिना विवेक के वैराग्य सम्भव नहीं। इसी विवेक को इस रूप में कहते हैं कि हे (अपूर्व्यम्) = न पूरण करने योग्य प्रभो! (वयम्) = हम (उ) = निश्चय से (त्वाम्) = आपको (हवामहे) = पुकारते हैं। प्रभु सब प्रकार से पूर्ण होने से 'अपूर्व्य' हैं। प्रभु की प्राप्ति होने पर जीव सन्तोष व तृप्ति का अनुभव करता है। प्रभु की प्राप्ति में ही पूर्णता है।
(स्थूरम् भरन्तः कच्चित् न) = क्या हम उस स्थिर अवलम्बनभूत प्रभु का अपने अन्दर भरण न करेंगे! प्रभु ही एक स्थिर अवलम्बन हैं। प्रभु को आश्रय बनानेवाला कभी भटकता नहीं।
(अवस्यवः) = रक्षा चाहते हुए हम आपको पुकारते हैं। प्रकृति की ओर जाकर तो मनुष्य उसके पाँव तले कुचला जाता है। प्रभु की शरण में रहने पर वह प्रकृति का शिकार नहीं होता। प्रभु के उपासक के प्रकृति चरण चाटती है और अपने उपासक को वह खा जाती है। ‘ओ३म' शब्द की रचना में अ [परमात्मा] की जाकर [उ] हम जीव उसके मस्तक पर होते हैं, और [म्] प्रकृति की ओर जाने पर उसके पाँव के तले रौंदे जाते हैं।
(वज्रिन्) = हे प्रभो! आप स्वाभाविक गतिवाले हैं [वज् गतौ] और वह प्रकृति तो 'तम' [inert, गतिशून्य] है। आपको प्राप्त करने पर मैं गति व जीवन को प्राप्त करता हूँ तो प्रकृति की ओर जाकर मैं गतिशून्यता व मृत्यु का भागी होता हूँ।
(चित्रम्) = आप [चित्र] ज्ञान के देनेवाले हैं और प्रकृति मेरे ज्ञान को नष्ट कर मुझे अन्धा बनानेवाली है।
एवं प्रकृति और प्रभु में विवेक करनेवाला व्यक्ति कभी भी प्रकृति में आसक्त नहीं हो सकता। और यह विवेक-जनित वैराग्य उसे परमेश्वर की प्राप्ति के योग्य बनाता है।
भावार्थ -
मैं प्रभु और प्रकृति में विवेक करूँ। १. प्रभु प्राप्ति में तृप्ति है प्रकृति में अतृप्ति। २. प्रकृति का अवलम्बन अस्थिर है, प्रभु का स्थिर। ३. प्रभु की ओर आने में रक्षा है, प्रकृति की ओर जाने में विनाश, ४. प्रभु - प्राप्ति में जीवन है - प्रकृति में मृत्यु, ५. प्रभु प्रकाशमय हैं, प्रकृति अन्धकारमय । इस विवेक के द्वारा मैं प्रकृति के प्रति अनासक्त बनूँ।
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