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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 415
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣢क्ष꣣न्न꣡मी꣢मदन्त꣣ ह्य꣡व꣢ प्रि꣣या꣡ अ꣢धूषत । अ꣡स्तो꣢षत꣣ स्व꣡भा꣢नवो꣣ वि꣢प्रा꣣ न꣡वि꣢ष्ठया म꣣ती꣢꣫ योजा꣣꣬ न्वि꣢꣯न्द्र ते꣣ ह꣡री꣢ ॥४१५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡क्ष꣢꣯न् । अ꣡मी꣢꣯मदन्त । हि । अ꣡व꣢꣯ । प्रि꣣याः꣢ । अ꣣धूषत । अ꣡स्तो꣢꣯षत । स्व꣡भा꣢꣯नवः । स्व । भा꣣नवः । वि꣡प्राः꣢꣯ । वि । प्राः꣣ । न꣡वि꣢꣯ष्ठया । म꣣ती꣢ । यो꣡ज꣢꣯ । नु । इ꣣न्द्र । ते । ह꣢री꣣इ꣡ति꣢ ॥४१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत । अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी ॥४१५॥
स्वर रहित पद पाठ
अक्षन् । अमीमदन्त । हि । अव । प्रियाः । अधूषत । अस्तोषत । स्वभानवः । स्व । भानवः । विप्राः । वि । प्राः । नविष्ठया । मती । योज । नु । इन्द्र । ते । हरीइति ॥४१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 415
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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विषय - परस्मैपद [लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि ]
पदार्थ -
योगारूढ़ व्यक्ति का चित्रण गतमन्त्र में हुआ है। 'क्या यह योगारूढ़ खाता-पीता नहीं? इस प्रश्न का उत्तर मन्त्र इन शब्दों में देता है कि (अक्षन्) = ये खाते हैं, (अमीमदन्त) = आमोद-प्रमोद [enjoy] भी करते हैं। सामान्य लोगों की भाँति योगी भी - अध्यात्म संग्राम विजेता भी खाते-पीते हैं और आनन्द लेते हैं, परन्तु ये (प्रिया:) = शरीर के तर्पण के लिए ही भोजनादि के चाहनेवाले [प्री, तर्पण, कान्ति] प्रभु के प्यारे (हि) = निश्चय से (अव अधूषत) = वासना को कम्पित करके अपने से परे फेंक देते हैं। ये खाते हैं, परन्तु स्वाद के लिए नहीं खाते। ये भी सब कर्म करते हैं परन्तु अनासक्त होकर ।
इस प्रकार इन यज्ञरूप कर्मों से ही ये लोग (अस्तोषत)= प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु का स्तवन करते हुए ये (स्वभानवः) = आत्मप्रकाशवाले बनते हैं। ये 'अन्तर्ज्योति' बन जाते हैं। यह अन्दर का प्रकाश इन्हें आत्मालोचन में प्रवृत्त करके (विप्राः) - विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाला बनाता है। ये अपनी कमियों को दूर करते हुए (नविष्ठयामती) = अत्यन्त गतिशील [नव गतौ] स्तुति व ज्ञान से युक्त होते हैं। ब्रह्मज्ञानी बनकर गौरव से कह सकते हैं कि जब कर्म हमें बाँधता ही नहीं तो कर्म से क्या घबराना? निःशंक होकर हमें तो लोकहित के लिए कर्म करना ही है। प्रभु भी कहते हैं कि हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू (ते) = अपने इन (हरी) = घोड़ों को (नु) = निश्चय से (योजा) = लोकहित के लिए - औरों के भले के लिए-जोत ही । तुझे अपने लिए कुछ नहीं करना - योगरूढ़ होकर तेरी साधना पूर्ण हो गई है तो तू औरों के लिए इस रथ को चलाता ही चल ।
गतमन्त्र में ‘युङ्वा' यह आत्मनेपद प्रयोग था। वहाँ अपनी उन्नति के लिए कर्म करने थे। प्रस्तुत मन्त्र में ‘योजा' परस्मैपद है। अब उसे औरों के हित के लिए कर्म में लगे रहना है। यह परस्मैपद और आत्मनेपद के प्रयोगमात्र से कर्मतत्त्व का सुन्दर उपदेश वेद की ही अद्भुत शैली है।
भावार्थ -
१. मैं शरीर धारण के लिए भोजन व प्रमोद को जीवन में स्थान दूँ, २. वासना को अपने से दूर रक्खूँ, ३. प्रभु का स्तोता बनूँ, ४. अन्तः प्रकाश वाला बनूँ, ५. मेरी स्तुति क्रियामय हो और मैं लोकसंग्रह की भावना से क्रियामय बना रहूँ।
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