Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 43
ऋषिः - भर्गः प्रागाथः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
5
आ꣡ नो꣢ अग्ने वयो꣣वृ꣡ध꣢ꣳ र꣣यिं꣡ पा꣢वक꣣ श꣡ꣳस्य꣢म् । रा꣡स्वा꣢ च न उपमाते पु꣣रु꣢स्पृह꣣ꣳ सु꣡नी꣢ती꣣ सु꣡य꣢शस्तरम् ॥४३॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । नः꣣ । अग्ने । वयोवृ꣡धम्꣢ । वयः । वृ꣡ध꣢꣯म् । र꣣यि꣢म् । पा꣣वक । शँ꣡स्य꣢꣯म् । रा꣡स्वा꣢꣯ । च꣣ । नः । उपमाते । उप । माते । पुरुस्पृ꣡ह꣢म् । पु꣣रु । स्पृ꣡ह꣢꣯म् । सु꣡नी꣢꣯ती । सु । नी꣣ती । सु꣡य꣢꣯शस्तरम् । सु । य꣣शस्तरम् ॥४३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो अग्ने वयोवृधꣳ रयिं पावक शꣳस्यम् । रास्वा च न उपमाते पुरुस्पृहꣳ सुनीती सुयशस्तरम् ॥४३॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । अग्ने । वयोवृधम् । वयः । वृधम् । रयिम् । पावक । शँस्यम् । रास्वा । च । नः । उपमाते । उप । माते । पुरुस्पृहम् । पुरु । स्पृहम् । सुनीती । सु । नीती । सुयशस्तरम् । सु । यशस्तरम् ॥४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 43
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4;
Acknowledgment
विषय - 'ज्ञानधन' व 'प्राकृतिक धन'
पदार्थ -
इस मन्त्र में (नः)=हमें (आ) = चारों ओर से (रयिम्) = धन (रास्व)= प्राप्त कराइए - इन शब्दों में धन के लिए प्रार्थना की गई है 'वह धन ज्ञानरूप है या प्राकृतिक' इस प्रश्न का उत्तर (अग्ने), (पावक) व (उपमाते) = इन विशेषणों से मिल सकता है। इनके अर्थ क्रमश: 'आगे बढ़ानेवाला, पवित्र करनेवाला, तथा उप- समीप रहकर माति=निर्माण करनेवाला है। प्राकृतिक धन के लिए नि:संकोच ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह तो पतन का कारण भी हो जाता है। ज्ञान के समान कोई पवित्र करनेवाली वस्तु नहीं, जबकि धन अपवित्र विचारों का कारण भी बन जाता है। ज्ञानरूप धन को प्रभु हमारे हृदयों में बैठे हुए ही निर्मित कर रहे हैं। ('ऋचो यस्मादपातक्षन्’ )=अग्नि इत्यादि के हृदयों में ऋचाओं का प्रभु द्वारा निर्माण हुआ, अतः वे ‘उपमाति’ हैं। प्राकृतिक धन के लिए ऐसी बात नहीं कही जा सकती। एवं, इस मन्त्र में ज्ञानरूप धन के लिए ही प्रार्थना है। इन दोनों धनों का अन्तर निम्न विशेषणों से स्पष्ट है-
१. (वयोवृधम्)=जीवन को उन्नत करनेवाले । ज्ञान मानव-जीवन को उन्नत करने का प्रमुख साधन है। सांसारिक सम्पत्ति तो व्यसनों में फँसाने का कारण हो जाती है।
२. (शंस्यम्)=प्रशंसा के योग्य अथवा विज्ञान की वृद्धि करनेवाले [शंस:- Science]। बाह्य धन ज्ञान की तुलना में प्रशस्य नहीं है।
३. (पुरुस्पृहम्)=[पुरु च स्पृहं च] जो पालन व पूरण करनेवाला है, अतएव वाञ्छनीय है [पृ=पालनपूरणयो; ; स्पृह = to desire, to aspire] ज्ञान मनुष्य की रक्षा करता है और उसकी न्यूनताओं को दूर करता है। बाह्य धन मृत्यु का कारण हो जाता है, पत्नी भी विष दे देती है, अतः वह वाञ्छनीय नहीं है।
४. (सुनीती सुयशस्तरम्) = उत्तम मार्ग पर ले चलने के द्वारा खूब उत्तम यश का कारण है। ज्ञान मनुष्य को पवित्र मार्ग पर ले-चलकर उसे यशस्वी बनाता है। धन विपरीत मार्ग पर ले-जाकर अपयश का हेतु होता है। एवं, इस मन्त्र में ज्ञान - धन की याचना की गयी है।
भावार्थ -
प्रभो! हमें ज्ञान देकर पवित्र जीवनवाला कीजिए । यही ज्ञान हमें परिपक्व करके ‘भर्ग' बनाएगा।
इस भाष्य को एडिट करें