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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 454
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - द्विपदा त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣या꣡ वाजं꣢꣯ दे꣣व꣡हि꣢तꣳ सनेम꣣ म꣡दे꣢म श꣣त꣡हि꣢माः सु꣣वी꣡राः꣢ ॥४५४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣या꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । दे꣣व꣡हि꣢तम् । दे꣣व꣢ । हि꣣तम् । सनेम । म꣡दे꣢꣯म । श꣣त꣡हि꣢माः । श꣣त꣢ । हि꣣माः । सुवी꣡राः꣢ । सु꣣ । वी꣡राः꣢꣯ ॥४५४॥
स्वर रहित मन्त्र
अया वाजं देवहितꣳ सनेम मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥४५४॥
स्वर रहित पद पाठ
अया । वाजम् । देवहितम् । देव । हितम् । सनेम । मदेम । शतहिमाः । शत । हिमाः । सुवीराः । सु । वीराः ॥४५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 454
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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विषय - देवहित-वाज
पदार्थ -
(अया)=[अनया] इस साधन को साधन समझने की भावना से हम (देवहितम्) = देवों के लिए हितकर (वाजम्) = ज्ञान को (सनेम) = प्राप्त करें। जब मनुष्य अर्थ, अर्थात धन तथा अन्य काम्य पदार्थों को साधन न समझकर साध्य बना लेता है तो उनमें फँसकर प्राप्त ज्ञान को भी नष्ट कर लेता है। मनुष्य का ज्ञान तभी स्थिर रहता है व विकसित होता है जब वह साधनों को साधन समझने की भावना से दूर नहीं होता।
अर्थ और काम साधन ही बने रहते हैं तो ज्ञान प्राप्ति के अतिरिक्त यह परिणाम भी होता है कि (मदेम) = हम आनन्दपूर्वक जीवन बिताते हैं और (शतहिमाः सुवीरा:) = हमारे सौ के सौ वर्ष बड़े वीरतापूर्ण बीतते हैं। न हम वासनाओं के शिकार होते हैं और नहीं हमारी शक्तियाँ जीर्ण होती हैं। एवं साधनों को साधन समझने की भावना हमारे ज्ञान को स्थिर रखकर हमें ‘बार्हस्पत्य' बनाती है और शक्ति से भरकर 'भारद्वाज' बनती है।
भावार्थ -
मैं ज्ञानी बनूँ, प्रसन्न रहूँ और शक्तिशाली होऊँ।
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