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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 453
ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवाः छन्दः - द्विपदा गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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वि꣢ स्रु꣣त꣢यो꣣ य꣡था꣢ प꣣थ꣢꣫ इन्द्र꣣ त्व꣡द्य꣢न्तु रा꣣त꣡यः꣢ ॥४५३॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣢ । स्रु꣣त꣡यः꣢ । य꣡था꣢꣯ । प꣣थः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वत् । य꣣न्तु । रात꣡यः꣢ ॥४५३॥


स्वर रहित मन्त्र

वि स्रुतयो यथा पथ इन्द्र त्वद्यन्तु रातयः ॥४५३॥


स्वर रहित पद पाठ

वि । स्रुतयः । यथा । पथः । इन्द्र । त्वत् । यन्तु । रातयः ॥४५३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 453
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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पदार्थ -

प्रभु जीव से कहते हैं कि 'तू चाहता है कि ये सब भुवन तेरे लिए साधन ही बनें रहें, साध्य न हो जाएँ' इसके लिए तू (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय बन । इन्द्रियों को वश में करना ढ़ाल है जो मनुष्य को वासनाओं के आक्रमण से बचाती है। ये जितेन्द्रियतारूप ढाल तूझे इस इला= पृथिवी में ष = समाप्त न होने देगी। तू इन पार्थिव भोगों का अन्त करके 'ऐलूष' बनेगा। इस जितेन्द्रियता व अनासक्ति की वृत्ति को जगाने के लिए (त्वत्) = तुझ से (रातय:) = दान के प्रवाह उसी प्रकार (यान्तु) - चलें (यथा) = जैसे (वि-स्त्रुतयः) = विविध नदियों के प्रवाह (पथा) = मार्ग से बहते हुए चले जाते हैं।

पर्वतों से नदियों के प्रवाहों की भाँति दानों के प्रवाहों के चलने पर मनुष्य इन धनादि पदार्थों में आसक्त नहीं होता। ये उसके लिए साधन ही बने रहते हैं। दान सचमुच आसक्ति का दान=छेदन रकनेवाला है और दान-शोधन का कारण है। इस प्रकार यह दान जीव की कवच=ढाल बन जाता है। इस ढालवाला ऋषि ‘कवष' नामवाला हो गया है यह सब पार्थिव भोगों को समाप्त करने के कारण ‘ऐलूष' तो है ही। 

भावार्थ -

हम धन को साधन ही समझें और हमसे दान का प्रवाह बहते रहें।

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