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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 458
ऋषिः - गौराङ्गिरसः
देवता - सूर्यः
छन्दः - अतिजगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣य꣢ꣳ स꣣ह꣢स्र꣣मा꣡न꣢वो दृ꣣शः꣡ क꣢वी꣣नां꣢ म꣣ति꣢꣫र्ज्योति꣣र्वि꣡ध꣢र्म । ब्र꣣ध्नः꣢ स꣣मी꣡ची꣢रु꣣ष꣢सः꣣ स꣡मै꣢रयदरे꣣प꣢सः꣣ स꣡चे꣢त꣣सः स्व꣡स꣢रे मन्यु꣣म꣡न्त꣢श्चि꣣ता꣢ गोः ॥४५८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । स꣣ह꣡स्र꣢म् । आ꣡न꣢꣯वः । दृ꣣शः꣢ । क꣣वीना꣢म् । म꣣तिः꣢ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । वि꣡ध꣢꣯र्म । वि । ध꣣र्म । ब्रध्नः꣢ । स꣣मी꣡चीः꣢ । स꣣म् । ई꣡चीः꣢꣯ । उ꣣ष꣡सः꣢ । सम् । ऐ꣣रयत् । अरेप꣡सः꣢ । अ꣣ । रेप꣡सः꣢ । स꣡चे꣢꣯तसः । स । चे꣣तसः । स्व꣡स꣢꣯रे । म꣣न्युम꣡न्तः꣢ । चि꣣ताः꣢ । गोः ॥४५८॥
स्वर रहित मन्त्र
अयꣳ सहस्रमानवो दृशः कवीनां मतिर्ज्योतिर्विधर्म । ब्रध्नः समीचीरुषसः समैरयदरेपसः सचेतसः स्वसरे मन्युमन्तश्चिता गोः ॥४५८॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । सहस्रम् । आनवः । दृशः । कवीनाम् । मतिः । ज्योतिः । विधर्म । वि । धर्म । ब्रध्नः । समीचीः । सम् । ईचीः । उषसः । सम् । ऐरयत् । अरेपसः । अ । रेपसः । सचेतसः । स । चेतसः । स्वसरे । मन्युमन्तः । चिताः । गोः ॥४५८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 458
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 12;
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विषय - हजारों के समान
पदार्थ -
गत मन्त्र में (‘महि कर्म कर्तवे') इन शब्दों से महान् कर्म करने की प्रेरणा दी गई थी। यही तो महान् परमेश्वर को पाने में समर्थ होता है । यह इन्द्र शक्तिशाली बना हुआ व्यक्ति कभी यह नहीं सोचता कि 'मैं इस कार्य को कैसे कर पाऊँगा?' ये अपने को अकेला अनुभव ही नहीं करता । (अयं सहस्त्रा-मानवः) = यह तो हज़ारों मनुष्यों के तुल्य है। यह एक थोड़े ही है। (कवीनाम्) = क्रान्तदर्शियों के दृष्टिकोण से (दृशः) = देखनेवाला है। यह केवल आपाततः किसी वस्तु को न देखकर उसके तत्त्व तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। अच्छी प्रकार समझकर दृढ़ निश्चय से कार्य करेगा तभी तो किसी महान् कार्य को कर सकेगा।
(मतिः) = अपने दृष्टिकोण को ठीक रखने के लिए यह अपनी बुद्धि को सूक्ष्म बनाता है और (ज्योति:) = मनन के द्वारा उस बुद्धि से प्रकाश को पाने का प्रयत्न करता है। इस ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करके यह (विधर्म) = विशेषरूप से धारण करनेवाला बनता है। धारण करने की प्रक्रिया में इसका शैथिल्य इसलिए नहीं होता कि यह (ब्रध्न:) = महान् है [नि० २.३]। इसका हृदय इतना विशाल है कि यह सभी का उपकार करता है। यह अपने (उषसः) = उषः कालों को (समीची:) = सुन्दर गतिवाला समैरयत करता है, अर्थात् यह अपने उष:कालों को बड़े सुन्दर रूप से बिताता है।
१. (अरेपस) = पाप से शून्य उस समय यह किसी के प्रति अशुभ भावना को अपने अन्दर नहीं आने देता।
२. (सचेतसः) = चैतन्यता से युक्त उष:कालों में यह स्वाध्याय के द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ाता है।
३. (स्वसरे) = घर में (मन्युभन्तः) = उत्साहवाला होता है। उस समय यह प्रत्येक व्यक्ति में ३उत्साह भरने का ध्यान करता है।
४. (चिता गोः) = वाणियों से उपचित प्रत्येक उष:काल में यह वेदवाणियों या अन्य उत्तम वाणियों को स्मरण करने का प्रयत्न करता है और इस प्रकार अपने मस्तिष्क को सुभाषितों का भण्डार बना लेता है। इन वाणियों के उचित प्रयोग से ही यह किसी भी अर्थ का निश्चय करानेवाला होने से [गमयति अर्थान् इति गौ:] ‘गौः' कहलाता है, शक्तिशाली होने से ‘आंगिरस'।
भावार्थ -
मैं प्रत्येक उष:काल को सुन्दर बिताऊँ ।
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