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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 477
ऋषिः - श्यावाश्वः आत्रेयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प्र꣡ सोमा꣢꣯सो मद꣣च्यु꣢तः꣣ श्र꣡व꣢से नो म꣣घो꣡ना꣢म् । सु꣣ता꣢ वि꣣द꣡थे꣢ अक्रमुः ॥४७७॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । सो꣡मा꣢꣯सः । म꣣दच्यु꣡तः꣢ । म꣣द । च्यु꣡तः꣢꣯ । श्र꣡व꣢꣯से । नः꣣ । मघो꣡ना꣢म् । सु꣣ताः꣢ । वि꣣द꣡थे꣢ । अ꣣क्रमुः ॥४७७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सोमासो मदच्युतः श्रवसे नो मघोनाम् । सुता विदथे अक्रमुः ॥४७७॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सोमासः । मदच्युतः । मद । च्युतः । श्रवसे । नः । मघोनाम् । सुताः । विदथे । अक्रमुः ॥४७७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 477
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2;
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विषय - उत्साह- यश - श्री
पदार्थ -
(सोमासः) = सोम (प्र) = प्रकर्षण [खूब] (मदच्युतः) = उत्साह के टपकानेवाले हों। सोम के कारण हमारा जीवन उल्लासमय हो - हम कभी निराशा की बातें न करें। ये सोम (मघोनाम्) = [मा अघ] पापांशशून्य ऐश्वर्यवाले (न:) = हमारे (श्रवसे) = यश के लिए हों । उत्साह सम्पन्न पुरुष ऐश्वर्य को प्राप्त करता ही है - वह ऐश्वर्य सुपथा अर्जित हुआ करता है और इसके दानादि कार्म में उत्तम विनियोग से मनुष्य यश का भागी बनता है। ('जुहोत प्रच तिष्ठत') = 'दान दो और प्रतिष्ठा पाओ' इस वेदवाक्य के अनुसार यह संयमी पुरुष कमाता है - देता है और प्रतिष्ठा को पाता है। जितना देता है उतना ही अधिक कमाता भी है। वस्तुतः (सुता:) = उत्पन्न हुए हुए ये सोम (विदथे) = [ विद्लाभे] धन के लिए (अक्रमुः) = गतिशील होते हैं। सोम मनुष्य को उस पुरुषार्थ के योग्य बनाता है जिससे कि यह सोमी खूब कमाता है। इसकी सब इन्द्रियाँ गतिशील बनी रहती हैं— गतिशील बने रहने से ही यह 'श्यावाश्व'=गतिशील इन्द्रियरूप घोड़ोंवाला कहलाता है [श्यैङ् गतौ ] ।
भावार्थ -
मैं सोमी बनूँ। सोम मुझे उत्साह - यश और श्री प्राप्त कराए।
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