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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 487
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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उ꣢पो꣣ षु꣢ जा꣣त꣢म꣣प्तु꣢रं꣣ गो꣡भि꣢र्भ꣣ङ्गं꣡ परि꣢꣯ष्कृतम् । इ꣡न्दुं꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢यासिषुः ॥४८७॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । जा꣣त꣢म् । अ꣣प्तु꣡र꣢म् । गो꣡भिः꣢ । भ꣣ङ्ग꣢म् । प꣡रि꣢꣯ष्कृतम् । प꣡रि꣢꣯ । कृ꣣तम् । इ꣡न्दु꣢꣯म् । दे꣣वाः꣢ । अ꣣यासिषुः ॥४८७॥


स्वर रहित मन्त्र

उपो षु जातमप्तुरं गोभिर्भङ्गं परिष्कृतम् । इन्दुं देवा अयासिषुः ॥४८७॥


स्वर रहित पद पाठ

उप । उ । सु । जातम् । अप्तुरम् । गोभिः । भङ्गम् । परिष्कृतम् । परि । कृतम् । इन्दुम् । देवाः । अयासिषुः ॥४८७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 487
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'अमहीयु' = पार्थिव भोगों की कामना न करनेवाला कहता है कि (उप) = समीपता से, उ निश्चयपूर्वक सु उत्तमप्रकार से (जातम्) = विकास करनेवाले (इन्दुम्) = सोम को (देवा:) = देवलोग (अयासिषुः) = प्राप्त करते हैं। यदि एक बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में माता, पिता व आचार्य की समीपता में निवास करता है और गृहस्थ बनने पर विद्वान् अतिथियों के सान्निध्य को प्राप्त करता है, प्रातः सायं प्रभु की उपासना करता है तो उस व्यक्ति का जीवन संयम-प्रवण रहता है बौर सोम उसके शरीर में व्याप्त होकर उसके उत्तम विकास का कारण बनता है। यह सोम (गोभिः) = ज्ञानप्रद वेदवाणियों के साथ (अप्-तुरम्) = उसके अन्दर कर्मों को त्वरा से- शीघ्रता से करानेवाला होता है। सोमी पुरुष को आलस्य नहीं व्यापता। न ही काम-क्रोध आदि वासनाएँ उसके मार्ग में विघातक होती हैं। यह (भर्गम्) = कामादि का मर्दन करनेवाला है-उ है - उन वासनाओं को कुचल डालनेवाला है और इस प्रकार (परिष्कृतम्) = यह जीवन को बड़ा परिष्कृत - शुद्ध बनानेवाला है।

एवं सोम के सुरक्षित होने पर जीवन में निम्न परिणाम उत्पन्न होते हैं - १. उत्तम विकास, २. ज्ञानपूर्वक शीघ्रता से कार्य करने की शक्ति ३. वासनाओं का भङ्ग और ४. जीवन का परिमार्जन। इस प्रकार जीवन को उत्तम बनानेवाले इस सोम को प्राप्त वे ही करते हैं जो कि 'देवा: ' = देव बनने का प्रयत्न करते हैं। 

भावार्थ -

मैं देव बनने का निश्चय करूँ।

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