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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 49
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीढावाङ्गिरसौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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अ꣣ग्नि꣡मी꣢डि꣣ष्वा꣡व꣢से꣣ गा꣡था꣢भिः शी꣣र꣡शो꣢चिषम् । अ꣣ग्नि꣢ꣳ रा꣣ये꣡ पु꣢रुमीढ श्रु꣣तं꣢꣫ नरो꣣ऽग्निः꣡ सु꣢दी꣣त꣡ये꣢ छ꣣र्दिः꣢ ॥४९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्नि꣢म् । ई꣣डिष्व । अ꣡व꣢꣯से । गा꣡था꣢꣯भिः । शी꣣र꣡शो꣢चिषम् । शी꣣र꣢ । शो꣣चिषम् । अग्नि꣢म् । रा꣣ये꣢ । पु꣣रुमीढ । पुरु । मीढ । श्रुत꣢म् । न꣡रः꣢꣯ । अ꣣ग्निः꣢ । सु꣣दीत꣡ये꣢ । सु꣣ । दीत꣡ये꣢ । छ꣣र्दिः꣢ ॥४९॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमीडिष्वावसे गाथाभिः शीरशोचिषम् । अग्निꣳ राये पुरुमीढ श्रुतं नरोऽग्निः सुदीतये छर्दिः ॥४९॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम् । ईडिष्व । अवसे । गाथाभिः । शीरशोचिषम् । शीर । शोचिषम् । अग्निम् । राये । पुरुमीढ । पुरु । मीढ । श्रुतम् । नरः । अग्निः । सुदीतये । सु । दीतये । छर्दिः ॥४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 49
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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विषय - प्रभु किसको शरण देते हैं?
पदार्थ -
१. हे मनुष्य! (तू अवसे) = रक्षा के लिए (शीर ) = [ शृ हिंसायम्] हिंसक हैं (शोचिषम्) = ज्ञानाग्नि की ज्वालाएँ जिसकी, उस (अग्निम्) = प्रभु की (गाथाभिः) = गायन के द्वारा (ईडिष्व) = स्तुति कर | मनुष्य पर प्रतिक्षण काम-क्रोधादि वासनाओं का आक्रमण हो रहा है। उस आक्रमण से अपने बचाव के लिए एक ही उपाय है कि मनुष्य प्रतिक्षण प्रभु का चिन्तन करे। जैसे गडरिये अपनी रक्षा के लिए वन में चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर लेते हैं, उसी प्रकार हम काम-क्रोधादिरूप हिंस्र पशुओं से इस भव - कान्तार में अपने बचाव के लिए ज्ञानाग्नि के पुञ्ज प्रभु को अपने चारों ओर सदा दीप्त रक्खें ।
२. हे (पुरुमीढ)= धन की खूब वर्षा करनेवाले पुरुष ! तू तो धन की वर्षा करता ही रह । धन समाप्त हो जाने की चिन्ता न कर | (राये)=धन के लिए (अग्निम् )- उस प्रभु की (ईडिष्व) स्तुति कर, अर्थात् देता जा, और धन के लिए उस प्रभु को पुकारता चल । तू बाँट, बाँटने के लिए धन प्रभु प्राप्त कराएँगे।
३. हे (नरः)=मनुष्यो! श्(रुतम्) = [शृणुत] सुनो। (अग्निः) = वे प्रभु (सुदीतये) = खूब दान देनेवाले के लिए (छर्दिः)=गृह, आश्रय, रक्षणस्थान [Shelter] हैं। जो खूब देता है, वह कभी वासनाओं का शिकार नहीं होता । पञ्चयज्ञ करके यज्ञशेष खानेवाले के पास विलास के लिए धन बचता ही नहीं।
प्रभु करें कि हम इस मन्त्र के ऋषि ‘सुदीति' खूब देनेवाले और ‘पुरुमीढ' खूब धन की वर्षा करनेवाले बनें।
भावार्थ -
प्रभु रक्षक हैं। हे मनुष्य ! तू दानी बन । प्रभु तुझे धन भी प्राप्त कराएँगे और वासनाओं से भी बचाएँगे।
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