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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 5
ऋषिः - उशना काव्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्रे꣡ष्ठं꣢ वो꣣ अ꣡ति꣢थिꣳ स्तु꣣षे꣢ मि꣣त्र꣡मि꣢व प्रि꣣य꣢म् । अ꣢ग्ने꣣ र꣢थं꣣ न꣡ वेद्य꣢꣯म् ॥५॥

स्वर सहित पद पाठ

प्रे꣡ष्ठ꣢꣯म् । वः꣣ । अ꣡ति꣢꣯थिम् । स्तु꣣षे꣢ । मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । इ꣣व । प्रिय꣢म् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯म् । न । वे꣡द्य꣢꣯म् ॥५॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रेष्ठं वो अतिथिꣳ स्तुषे मित्रमिव प्रियम् । अग्ने रथं न वेद्यम् ॥५॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रेष्ठम् । वः । अतिथिम् । स्तुषे । मित्रम् । मि । त्रम् । इव । प्रियम् । अग्ने । रथम् । न । वेद्यम् ॥५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 5
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

उपदेशक–इस मन्त्र का ऋषि ‘उशना' सबका हित चाहनेवाला, अपने श्रोतृवृन्द [Audience] से कहता है कि वे प्रभु( प्रेष्ठम्)=अत्यन्त कान्तिमान् हैं। ('दिवि सूर्यसहस्त्रस्य')= हज़ारों सूर्य के समान उस प्रभु की दीप्ति है। वे आदित्यवर्ण हैं, परन्तु इतने कान्तिमान् होते हुए भी वे प्रभु (वः) = तुम्हारे तो (अतिथिम्)= मेहमान की भाँति हैं। जिस प्रकार अतिथि के दर्शन घर पर कभी-कभी होते हैं, उसी प्रकार उस प्रभु का दर्शन भी कभी-कभी होता है। इसपर भी वह प्रभु (मित्रम् इव) = स्वाभाविक स्नेह करनेवाले मित्र की भाँति (प्रियम्)= विविध आवश्यक वस्तुओं की सृष्टि करके जीव को तृप्त करनेवाले हैं। जीव प्रभु की ओर अपनी दृष्टि करे या न करे, प्रभु तो उसपर अपनी कृपा-दृष्टि बनाये ही रखते हैं। माता-पिता के स्नेह में भी कुछ स्वार्थ हो सकता है, परन्तु उस स्वाभाविक मित्र का स्नेह स्वार्थ की गन्ध से परे है। 
वे प्रभु (अग्ने)=[अग्निं] जीव को आगे ले-चलनेवाले हैं। (रथं न)= रथ की भाँति (वेद्यम्)=जानने योग्य है। जिस प्रकार रथ से यात्रा की पूर्ति में सहायता मिलती है, उसी प्रकार मानव-जीवन की यात्रा भी इस प्रभुरूप रथ पर आरूढ़ होने से ही पूर्ण होगी। इस भावना को उपनिषदों में ‘ब्रह्म-निष्ठ' शब्द से स्पष्ट किया गया है। यही 'ईश्वर-प्रणिधान'=अपने को ईश्वर में रख देना है। इस जीवन-यात्रा में होनेवाले विविध विघ्नों को जीतने का एक ही उपाय है- ब्रह्मरूपी रथ में स्थित होना ।
ऋषि उशना कहते हैं कि इस ब्रह्म का ही (स्तुषे) मैं स्तवन करता हूँ, इसी के गुणों का गायन करता हूँ। यही तो कल्याण का मार्ग है। 

भावार्थ -

वे प्रभु अत्यन्त कान्तिमान्, जीव के मित्र, उसकी उन्नति के साधक तथा उसके लिए जीवन यात्रा में रथ के समान हैं।

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