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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 528
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣भि꣡ त्रि꣢पृ꣣ष्ठं꣡ वृष꣢꣯णं वयो꣣धा꣡म꣢ङ्गो꣣षि꣡ण꣢मवावशन्त꣣ वा꣡णीः꣢ । व꣢ना꣣ व꣡सा꣢नो꣣ व꣡रु꣢णो꣣ न꣢꣫ सिन्धु꣣र्वि꣡ र꣢त्न꣣धा꣡ द꣢यते꣣ वा꣡र्या꣢णि ॥५२८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । त्रि꣣पृष्ठ꣢म् । त्रि꣣ । पृष्ठ꣢म् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । व꣣योधा꣢म् । व꣣यः । धा꣢म् । अ꣣ङ्गोषि꣡ण꣢म् । अ꣣वावशन्त । वा꣡णीः꣢꣯ । व꣡ना꣢꣯ । व꣡सा꣢꣯नः । व꣡रु꣢꣯णः । न । सि꣡न्धुः꣢꣯ । वि । र꣣त्नधाः꣢ । र꣣त्न । धाः꣢ । द꣣यते । वा꣡र्या꣢꣯णि ॥५२८॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्रिपृष्ठं वृषणं वयोधामङ्गोषिणमवावशन्त वाणीः । वना वसानो वरुणो न सिन्धुर्वि रत्नधा दयते वार्याणि ॥५२८॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । त्रिपृष्ठम् । त्रि । पृष्ठम् । वृषणम् । वयोधाम् । वयः । धाम् । अङ्गोषिणम् । अवावशन्त । वाणीः । वना । वसानः । वरुणः । न । सिन्धुः । वि । रत्नधाः । रत्न । धाः । दयते । वार्याणि ॥५२८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 528
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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विषय - क्या पाप क्षमा होते हैं? वरुण न कि सिन्धु, पाशोंवाला, न पसीजनेवाला
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि मैत्रावरुणी वसिष्ठ कहता है कि - (वाणी:) = वेद वाणियाँ [वाणी: वाण्यः] (अवावशन्त) = पुकार - पुकार कर कह रहीं हैं कि (अभि) = उस प्रभु की ओर चलो जोकि १. (त्रि पृष्ठम्) = शरीर, मन व बुद्धि तीनों का आधार है- जिस प्रभु की भक्ति से त्रिविध उन्नति सम्भव होती है, २. (वृषणम्) = जो हमारे सब कोशों में शक्ति को प्राप्त करानेवाला है। अन्नमय कोश में तेजस्, प्राणमय कोश में वीर्य, मनोमयकोश में ओज व बल, विज्ञानमय में (मन्यु) = ज्ञान तथा आनन्दमयकोश में सहस् देनेवाले प्रभु ही हैं। ३.( वयोधाम्) = प्रभु आयु के धारण करनेवाले हैं– दीर्घजीवन प्राप्त करानेवाले हैं। प्रभु की उपासना का अभाव ही असमय मृत्यु का कारण बनता है। ४. (अंगोषिणम्) - वे प्रभु दीर्घ जीवन ही प्राप्त नहीं कराते, वे दीर्घ जीवन के साथ (आंगूष) = आघोषवाले हैं | हृदयस्थरूप से हमें वेदवाणियों का ज्ञान दे रहे हैं। यह हमारा कितना दुर्भाग्य है कि हम उस वेदवाणी को सुनते नहीं। वे प्रभु तो उन वेदों के द्वारा ५. हमें निरन्तर (वना वसान:) = ज्ञान की रश्मियाँ प्राप्त करा रहे हैं [वन=रश्मि–नि० १-५-८]। हमें क्या करना है किस बात से निवृत्त होना है, इसका ज्ञान प्रभु दे रहे हैं। वेद वस्तुतः सृष्टि के प्रारम्भ में कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान देने के लिए ही तो उच्चरित हुआ था। अब यदि मैं अध्ययन न करके कर्तव्याकर्त्तव्य को नहीं जान पाता और अकर्त्तव्यों में ग्रसित हो जाता हूँ तो मुझे यह न भूलना चाहिए कि वे प्रभु ६. (वरुण) = वरुण पाशी हैं- ('ये ते पाशाय वरुण सप्त- सप्त त्रेधा तिष्ठन्ति विपाषिता रुशन्तः न छिन्तु सर्वे अनूनं वदन्त यः सत्यवाद्यति तं सृजन्तु ।)वरुण के ये पाश अनृत की ओर जानेवाले को जकड़ते हैं, इनसे तो सत्यवादी ही बच सकते हैं। यदि मैं यह सोचूँ कि प्रार्थना व विनती के द्वारा मैं पाप क्षमा करा लूँगा तो यह मेरा भ्रम है। वे प्रभु ७. (न सिन्धुः) = [स्यन्द - प्रस्रवणे] पिघलनेवाले नहीं। मेरी प्रार्थना से उनका हृदय पसीजेगा नहीं। वे प्रभु कुछ क्रूर नहीं हैं। यदि मैं कर्त्तव्य का पालन करूँगा ता वे प्रभु ८. (विरत्नधा) = विशेष - विशेष रत्नों के धारण करानेवाले हैं। सब रमणीय वस्तुओं के देनेवाले हैं। दण्ड देते हुए वे 'रुद्र' प्रतीत होते हैं, वास्तव में हैं तो वे 'शिव' ही। इन दण्डों को भी वे हमारे कल्याण के लिए ही तो देते हैं। ९. वे (वार्याणि दयते) = सब वरणीय [desirable] वस्तुएँ हमें प्राप्त कराते हैं। पाप क्षमा नहीं, परन्तु पापमोचन तो वे प्रभु ही कराते हैं। दण्ड आदि की व्यवस्था से वे हमारी पाप प्रवृत्ति को ही दूर कर देते हैं। निष्पाप होकर हम 'वसिष्ठ' बनते हैं - उत्तम निवासवाले होते हैं।
भावार्थ -
प्रभु वरुण हैं, न कि सिन्धु । पाप क्षमा न कर वह पापमोचन की व्यवस्था
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