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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 529
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣡क्रा꣢न्त्समु꣣द्रः꣡ प्र꣢थ꣣मे꣡ विध꣢꣯र्मन् ज꣣न꣡य꣢न्प्र꣣जा꣡ भुव꣢꣯नस्य गो꣣पाः꣢ । वृ꣡षा꣢ प꣣वि꣢त्रे꣣ अ꣢धि꣣ सा꣢नो꣣ अ꣡व्ये꣢ बृ꣣ह꣡त्सोमो꣢꣯ वावृधे स्वा꣣नो꣡ अद्रिः꣢꣯ ॥५२९॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡क्रा꣢꣯न् । स꣣मुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । प्र꣣थमे꣢ । वि꣡ध꣢꣯र्मन् । वि । ध꣣र्मन् । जन꣡य꣢न् । प्र꣣जाः꣢ । प्र꣣ । जाः꣢ । भु꣡व꣢꣯नस्य । गो꣣पाः꣢ । गो꣣ । पाः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । सा꣡नौ꣢꣯ । अ꣡व्ये꣢꣯ । बृ꣣ह꣢त् । सो꣡मः꣢꣯ । वा꣣वृधे । स्वानः꣢ । अ꣡द्रिः꣢꣯ । अ । द्रिः꣣ ॥५२९॥


स्वर रहित मन्त्र

अक्रान्त्समुद्रः प्रथमे विधर्मन् जनयन्प्रजा भुवनस्य गोपाः । वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत्सोमो वावृधे स्वानो अद्रिः ॥५२९॥


स्वर रहित पद पाठ

अक्रान् । समुद्रः । सम् । उद्रः । प्रथमे । विधर्मन् । वि । धर्मन् । जनयन् । प्रजाः । प्र । जाः । भुवनस्य । गोपाः । गो । पाः । वृषा । पवित्रे । अधि । सानौ । अव्ये । बृहत् । सोमः । वावृधे । स्वानः । अद्रिः । अ । द्रिः ॥५२९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 529
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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पदार्थ -

(समुद्र:) = सदा आनन्द के साथ निवास करनेवाला प्रभु (प्रथमे) = इस अत्यन्त विस्तृत (विधर्मन्) = भौतिक आधार से शुन्य विस्तृत अन्तरिक्ष में [अस्कम्भाने-विधर्मन्-खम्भे से रहित ] (प्रजाः)=प्रजाओं को (जनयन्) = जन्म देता हुआ तथा (भुवनस्य गोपा:) = सब भुवनों का रक्षक (अक्रान्) = सबको लाँघकर विद्यमान है [अत्यतिष्ठद् दशांगुलम्] । वस्तुतः ही यह अन्तरिक्ष कितना विशाल है? इसकी तो कोई सीमा ही नहीं प्रतीत होती । और फिर इतना विशाल यह लोक बिना किसी भौतिक स्तम्भ के अपनी स्थिति में विद्यमान है। सचमुच ही ये आश्चर्य की बात है। लोक-लोकान्तर इसके आधार से हैं परन्तु प्रश्न यह है कि यह किसके आधार से है? इसका आधार वस्तुतः वही सब प्रजाओं को जन्म देनेवाला तथा सब लोकों का रक्षक प्रभु हैं जो इस सम्पूर्ण सृष्टि को लाँघकर भी विद्यमान् हैं।

वह परमात्मा (वृषा) = शक्तिशाली है, हमें प्रत्येक कोश की शक्ति देनेवाला है। हमपर शक्तियों की वर्षा करता हुआ वह (बृहत्सोमः) = सारे संसार का वर्धन करनेवाला परमात्मा (पवित्रे) = हमारे पवित्र हृदयों में तथा (अधिसानो अव्ये) = मेरु पर्वत के शिखररूप सुरक्षित स्थान में [मस्तिष्क में] (वावृधे) = बढ़ता है। प्रभु का दर्शन हृदय व मस्तिष्क में होता है। हृदय आत्मा का निवासस्थान है तो मस्तिष्क कार्यालय है। आत्मा उस प्रभु का दर्शन इन दानों स्थानों पर ही कर सकता है।

वे प्रभु (स्वान:) = हृदयस्थरूप से उच्च स्वर से वेदमन्त्रों का आघोष कर रहे हैं। वे 'अंगोषिन्' हैं। वे प्रभु (अद्रिः) = अविदारणीय, अविनश्वर हैं। उनका यह वेद - ज्ञान भी अनश्वर है। इसके अनुसार हम अपना जीवन बनायेंगे तो वे प्रभु हमारे लिए शिव ही शिव हैं। अन्यथा हमें उनके रुद्ररूप का अनुभव करना होता है। 'प्रार्थना से हम पाप क्षमा करा लेंगे' ऐसा तो हमें भ्रम होना ही नहीं चाहिए। वे प्रभु तो अद्रि हैं अपने न्याय मार्ग से किसी भी प्रकार विचलित नहीं किये जा सकते।

भावार्थ -

उस प्रभु की वेदवाणी को सुननेवाला व्यक्ति सब वासनाओं को नष्ट करनेवाला ‘पराशर' तथा शक्ति-सम्पन्न 'शाक्त्य' होता है।

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