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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 535
ऋषिः - इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प्र꣡ गा꣢यता꣣꣬भ्य꣢꣯र्चाम दे꣣वा꣡न्त्सोम꣢꣯ꣳ हिनोत मह꣣ते꣡ धना꣢꣯य । स्वा꣣दुः꣡ प꣢वता꣣मति꣣ वा꣢र꣣म꣢व्य꣣मा꣡ सी꣢दतु क꣣ल꣡शं꣢ दे꣣व꣡ इन्दुः꣢꣯ ॥५३५॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । गा꣣यता । अभि꣢ । अ꣣र्चाम । देवा꣢न् । सो꣡म꣢꣯म् । हि꣣नोत । महते꣢ । ध꣡ना꣢꣯य । स्वा꣣दुः꣢ । प꣣वताम् । अ꣡ति꣢꣯ । वा꣡र꣢꣯म् । अ꣡व्य꣢꣯म् । आ । सी꣣दतु । कल꣡श꣢म् । दे꣣वः꣢ । इ꣡न्दुः꣢꣯ ॥५३५॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र गायताभ्यर्चाम देवान्त्सोमꣳ हिनोत महते धनाय । स्वादुः पवतामति वारमव्यमा सीदतु कलशं देव इन्दुः ॥५३५॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । गायता । अभि । अर्चाम । देवान् । सोमम् । हिनोत । महते । धनाय । स्वादुः । पवताम् । अति । वारम् । अव्यम् । आ । सीदतु । कलशम् । देवः । इन्दुः ॥५३५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 535
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र में ‘इन्द्रप्रमति वासिष्ठ' के जीवन का चित्रण है। इन्द्र जो प्रकृष्ट मतिवाला है–उत्तम बुद्धिवाला है। वासिष्ठ है-काम-क्रोध को वशीभूत करनेवाला है। यह जीवन के निम्न सूत्रों से बना था

१. (प्रगायत) = उस प्रभु का खूब ही गायन करो। सोते-जागते सदा उस प्रभु का स्मरण करो। यह स्मरण और गायन हमें अधर्म से बचाएगा और हमारे सामने सदा लक्ष्य दृष्टि बनी रहेगी।

२. (अभ्यर्चाम देवान्) = हम देवों की अर्चना करें। बड़े व्यक्तियों के आदर की भावना हममें सदा बनी रहे। 'माता-पिता, आचार्य व अतिथियों' के आदर करनेवाले बनें- ये हमारे लिए देव हों ।

२र

३. (सोमं हिनोत महते धनाय) = ज्ञानरूप महान् धन के लिए संयमी बनकर हम सोम को अन्दर प्रेरित करनेवाले हों। अपजंसपजल व वीर्यशक्ति हमारे अङ्ग-प्रत्यङ्ग को स्वस्थ बनानेवाली होकर ज्ञानाग्नि का ईंधन बने। रुपया-पैसा तो विषय - ग्रसित पुरुष भी कमा सकता है।

४. (स्वादुः) = अत्यन्त माधुर्यमय जीवनवाले बनकर हम (अव्यं वारम्) = सर्वोत्तम रक्षणीय वस्तु ज्ञान के विघ्नभूत काम को (अति पवताम्) = लाँघ जाएँ। काम को जीतने का वास्तविक उपाय जीवन को मधुर बनाना ही है - प्राणिमात्र के लिए मैं माधुर्य लिए हुए होऊँ । संकुचित प्रेम ही काम है-यही व्यापक होकर माधुर्य बन जाता है।

५. जब मैं अपने जीवन को उल्लिखित प्रकार से बनाता हूँ तो मेरा यह शरीर सचमुच ‘कलश' बनता है। ‘कलाः शेरते अस्मिन्' इसमें सोलह की सोलह कलाओं का प्रवेश होता है। और इस (कलशः) = सुन्दर सकल शरीर में (इन्दुः देवः) = वह सर्वशक्तिमान् सर्वैश्वर्य-सम्पन्न दिव्य प्रभु (आसीदतु) = आकर विराजमान हों। मेरा शरीर प्रभु का निवास स्थान बने। इस दिन प्रभु से ज्ञान प्राप्त करता हुआ मैं 'प्रयाति' क्यों न बनूँगा।

भावार्थ -

स्तुति, बड़ों का आदर, संयम तथा माधुर्य मेरे जीवन को प्रभु के निवास के योग्य बनाएँ।

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