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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 555
ऋषिः - कविर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
3
अ꣣चोद꣡सो꣢ नो धन्व꣣न्त्वि꣡न्द꣢वः꣣ प्र꣢ स्वा꣣ना꣡सो꣢ बृ꣣ह꣢द्दे꣣वे꣢षु꣣ ह꣡र꣢यः । वि꣡ चि꣢दश्ना꣣ना꣢ इ꣣ष꣢यो꣣ अ꣡रा꣢तयो꣣ऽर्यो꣡ नः꣢ सन्तु꣣ स꣡नि꣢षन्तु नो꣣ धि꣡यः꣢ ॥५५५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣चोद꣡सः꣢ । अ꣣ । चोद꣡सः꣢ । नः꣣ । धन्वन्तु । इ꣡न्द꣢꣯वः । प्र꣢ । स्वा꣣ना꣡सः꣢ । बृ꣣ह꣢त् । दे꣣वे꣡षु । ह꣡र꣢꣯यः । वि । चि꣣त् । अश्नानाः꣢ । इ꣣ष꣡यः꣢ । अ꣡रा꣢꣯तयः । अ । रा꣣तयः । अर्यः꣢ । नः꣣ । सन्तु । स꣡नि꣢꣯षन्तु । नः꣣ । धि꣡यः꣢꣯ ॥५५५॥
स्वर रहित मन्त्र
अचोदसो नो धन्वन्त्विन्दवः प्र स्वानासो बृहद्देवेषु हरयः । वि चिदश्नाना इषयो अरातयोऽर्यो नः सन्तु सनिषन्तु नो धियः ॥५५५॥
स्वर रहित पद पाठ
अचोदसः । अ । चोदसः । नः । धन्वन्तु । इन्दवः । प्र । स्वानासः । बृहत् । देवेषु । हरयः । वि । चित् । अश्नानाः । इषयः । अरातयः । अ । रातयः । अर्यः । नः । सन्तु । सनिषन्तु । नः । धियः ॥५५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 555
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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विषय - कवि की कान्त-कामना
पदार्थ -
कवि इस प्रकार कामना करता है कि
१. (नः) = हमारे (इन्दवः) = [ विन्दवः ]-सोम-वीर्य के कण (अचोदस:) = [not excited, restrained, calm, prevented ] अनुत्तेजित हुए हुए, संयम में रखे हुए हुए शान्त व निरुद्ध होकर (प्र-धनवन्तु) = उच्चता की ओर गति करनेवाले हों और इस प्रकार हमें पवित्र बना डालें।
२. (हरयः) = हमारी इन्द्रियाँ [हरणात् हरय:] (देवेषु) = दिव्य गुणों में (बृहत् प्रस्वानासः) = खूब गरजनेवाली हों। हमारी इन्द्रियों से दिव्य गुणों का उच्चारण हो रहा हो अर्थात् एक-एक इन्द्रियाँ शुभ ही कार्य में प्रवृत्त हो ।
३. (इषय:) = [ इष् = विष्= wish] नाना प्रकार की इच्छाएँ, कामनाएँ जोकि (अरातयः) = अपनी ही आवश्यकताएँ बढ़ जाने से हमें दान भी नहीं देने देतीं [अविद्यमाना रातिः याभ्यः], अतएव हमारी शत्रु हैं। ये वासनाएँ चित् = निश्चय से वि - अश्नाना-विहीन भोजनवाली हों। इनको भोजन न प्राप्त हो और ये भूखी ही मर जाएँ। निराहार देही के विषय निवृत्त हो जाते हैं। यही तो उपवास का दर्शन है। यह उपवास वासनाओं से दूर कर हमें प्रभु के समीप वास = निवास देनेवाला होता है।
४. (नः अर्यः सन्तु) = उल्लिखित प्रकार से वासनाओं को दूर करके हमारे सब व्यक्ति स्वामी [अर्य] इन्द्रियों के अधिष्ठाता जितेन्द्रिय हों और अन्त में -
५. (नः) = हम सबकी (धियः) = बुद्धियाँ (सनिषन्तु) = संविभागपूर्वक सेवन करने के विचारवाली हों। जितेन्द्रिय ही संविभाग के विषय का पालन कर सकता है। अजितेन्द्रिय की तो अपनी
ही भूख समाप्त नहीं होती। उसे क्या यह पंचविध कामना कितनी सुन्दर है? पर इसे कवि ही कर सकता है, जिसने कि आपातरमणीय विषयों की गहराई तक जाकर उनके खोखलेपन को देख लिया है। दूसरों को तो विषयों की चमक आकृष्ट कर ही लेती है।
भावार्थ -
कवि की उपर्युक्त कान्त कामना की हम भी कामना करें।