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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 556
ऋषिः - कविर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
6
ए꣣ष꣢꣫ प्र कोशे꣣ म꣡धु꣢माꣳ अचिक्रद꣣दि꣡न्द्र꣢स्य꣣ व꣢ज्रो꣣ व꣡पु꣢षो꣣ व꣡पु꣢ष्टमः । अ꣣भ्यॄ꣢३त꣡स्य꣢ सु꣣दु꣡घा꣢ घृ꣣त꣡श्चुतो꣢ वा꣣श्रा꣡ अ꣢र्षन्ति꣣ प꣡य꣢सा च धे꣣न꣡वः꣢ ॥५५६॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । प्र । को꣡शे꣢꣯ । म꣡धु꣢꣯मान् । अ꣣चिक्रदत् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । व꣡ज्रः꣢꣯ । व꣡पु꣢꣯षः । व꣡पु꣢꣯ष्टमः । अ꣣भि꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सु꣣दु꣡घाः꣢ । सु꣣ । दु꣡घाः꣢꣯ । घृ꣣तश्चु꣡तः꣢ । घृ꣣त । श्चु꣡तः꣢꣯ । वा꣣श्राः꣢ । अ꣣र्षन्ति । प꣡य꣢꣯सा । च꣣ । धेन꣡वः꣢ ॥५५६॥
स्वर रहित मन्त्र
एष प्र कोशे मधुमाꣳ अचिक्रददिन्द्रस्य वज्रो वपुषो वपुष्टमः । अभ्यॄ३तस्य सुदुघा घृतश्चुतो वाश्रा अर्षन्ति पयसा च धेनवः ॥५५६॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । प्र । कोशे । मधुमान् । अचिक्रदत् । इन्द्रस्य । वज्रः । वपुषः । वपुष्टमः । अभि । ऋतस्य । सुदुघाः । सु । दुघाः । घृतश्चुतः । घृत । श्चुतः । वाश्राः । अर्षन्ति । पयसा । च । धेनवः ॥५५६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 556
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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विषय - कवि का निवासस्थान व कार्यप्रणाली
पदार्थ -
१. (एषः) = यह कवि प्र-कोशे - सर्वोत्कृष्ट आनन्दमयकोश में निवास करता हुआ (मधुमान्) = माधुर्यवाला होता है। यह मधु जैसा ही हो जाता है। अन्नमयादि कोश ही तो हमें द्वैत में रखते हैं। आनन्दमयकोश में पहुँचकर यह एकत्व का दर्शन करता है और शोक-मोह से ऊपर उठकर किसी से भी यह घृणा नहीं करता [ततो न विजु गुप्सते ] ।
२. (अचिक्रदत्) = यह प्राणिमात्र के कल्याण के लिए सदा प्रभु का आह्वान करता [Send his constant prayers unto God] [क्रद्+यङ् का लुङ्] । इसका जीवन प्रार्थनामय होता है, अतएव वासनाशून्य | वासनाओं को तो मानो यह रुला देता है कि हम कहाँ रहेंगी? इसी का परिणाम है कि
३. (इन्द्रस्य वज्रः) = यह इन्द्र बनता है। जितेन्द्रिय - इन्द्रियों का अधिष्ठाता। इसका शरीर वज्रतुल्य दृढ़ हो जाता है। यह तो हुआ कवि का निजु जीवन। इसके सामाजिक जीवन में (वाश्राः अभी अर्षन्ति) = इसकी आवाजें [उपदेश वाणियाँ] चारों ओर तीव्रता से पहुँचती हैं [अर्ष=rush]। यह परिव्राट जो हुआ। कैसी वाणियाँ? [क] (ऋतस्य) = सत्य की। यह असत्य को कभी बोलता ही नहीं है, [ख] (सुदुघा) = उत्तमता से पूरण करनेवाली । इसकी वाणी जले पर नमक छिड़कनेवाली न होकर घावों को भरनेवाली होती हैं, [ग] (घृतश्चुत:) = दीप्ति का स्रावण करनेवाली अर्थात् उत्साह भरनेवाली अथवा ज्ञान देनेवाली, और [घ] (पयसा) = वृद्धि के द्वारा (धेनवः) = पान करानेवाली - तृप्त करानेवाली। इसकी वाणियाँ वृद्धि का ही कारण बनती हैं, ह्रास का नहीं। यह धर्म का प्रचार अत्यन्त श्लक्ष्ण व मधुर वाणी से करता है।
भावार्थ -
कवि सदा आनन्दमयकोश में निवास करता है और मधुर शब्दों को ही बोलता है।
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