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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 557
ऋषिः - सिकता निवावरी
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प्रो꣡ अ꣢यासी꣣दि꣢न्दु꣣रि꣡न्द्र꣢स्य निष्कृ꣣त꣢꣫ꣳ सखा꣣ स꣢ख्यु꣣र्न꣡ प्र मि꣢꣯नाति स꣣ङ्गि꣡र꣢म् । म꣡र्य꣢ इव युव꣣ति꣢भिः꣣ स꣡म꣢र्षति꣣ सो꣡मः꣢ क꣣ल꣡शे꣢ श꣣त꣡या꣢मना प꣣था꣢ ॥५५७॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । उ꣣ । अयासीत् । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । नि꣣ष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣢म् । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । स꣡ख्युः꣢꣯ । स । ख्युः꣢ । न꣢ । प्र । मि꣣नाति । सङ्गि꣡र꣢म् । स꣣म् । गि꣡र꣢꣯म् । म꣡र्यः꣢꣯ । इ꣣व । युवति꣡भिः꣢ । सम् । अ꣣र्षति । सो꣡मः꣢꣯ । क꣣लशे꣢ । श꣣त꣡या꣢मना । श꣣त꣢ । या꣣मना । पथा꣢ ॥५५७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य निष्कृतꣳ सखा सख्युर्न प्र मिनाति सङ्गिरम् । मर्य इव युवतिभिः समर्षति सोमः कलशे शतयामना पथा ॥५५७॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । उ । अयासीत् । इन्दुः । इन्द्रस्य । निष्कृतम् । निः । कृतम् । सखा । स । खा । सख्युः । स । ख्युः । न । प्र । मिनाति । सङ्गिरम् । सम् । गिरम् । मर्यः । इव । युवतिभिः । सम् । अर्षति । सोमः । कलशे । शतयामना । शत । यामना । पथा ॥५५७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 557
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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विषय - सिकता निवावरी
पदार्थ -
‘सिकता' शब्द ब्राह्मण ग्रन्थों में 'रेत:' का पर्याय है। यह ऋषि का अपने को शक्ति का पुञ्ज बनाती है और इसी उद्देश्य से निवावरी = निश्चय से प्रभु का वनन-उपासन-सम्भजन करती है। प्रभु उपासना से वासनाएँ दूर रहती हैं और शक्ति की रक्षा सम्भव होती है। यह इसी निश्चय पर पहुँची है कि १, (इन्दु:) = [ विन्दु:] शक्ति का धारण करके शक्ति का पुञ्ज बननेवाला व्यक्ति ही (उ) = निश्चय से (इन्द्रस्य) = प्रभु के (निष्कृतम्) = शुद्ध पद को अथवा अनृणता को (प्र आयासीत्) = प्रकर्षण प्राप्त होता है। २. (सखा) = यह प्रभु का मित्र (सख्युः) = अपने मित्र प्रभु की (सङ्गिरम्) = उत्तम वाणी को अथवा प्रभु के साथ की गई प्रतिज्ञा को (न प्रमिनाति) = नहीं तोड़ता है। सच्चा मित्र प्रतिज्ञा नहीं तोड़ता । ३. यह (मर्यइव) = उस मनुष्य की भाँति जोकि (युवतिभिः समर्षति) = युवतियों के साथ गति करता है और उनके साथ होने से उचित मर्यादित नम्रता [modesty ] से चलता है, उसी प्रकार (सोमः) = सोम व विनीत होता है तथा ४. (कलशे) = शरीररूप कलश में (शतयामन पथा) = शतश: नियन्त्रणोवाले, प्रतिदिन लिए जानेवाले अल्पव्रतो के नियमवाले मार्ग से चलता है। इसने कितने ही व्रतों में अपने को संयत किया हुआ होता है। यह संयम बन्धन ही तो इसके बन्धन-छेद का कारण बनता है। यह संयम ही इसके शरीर को भी १६ कला संपन्न बना 'कलश' इस सार्थक नामवाला करता है।
भावार्थ -
शक्ति का धारण, प्रभु से की गई प्रतिज्ञाओं का पालन, उचित विनीतता व व्रतमय जीवन ये चार बातें हमें परम- पद को प्राप्त कराने में साधन होती हैं।
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