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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 589
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः कृत्रिमो देवरातो वैश्वामित्रो वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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उ꣡दु꣢त्त꣣मं꣡ व꣢रुण꣣ पा꣡श꣢म꣣स्म꣡दवा꣢꣯ध꣣मं꣡ वि꣢꣯ मध्य꣣म꣡ꣳ श्र꣢थाय । अ꣡था꣢दित्य व्र꣣ते꣢ व꣣यं꣡ तवा꣢꣯ना꣣ग꣢सो꣣ अ꣡दि꣢तये स्याम ॥५८९॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣢त् । उ꣣त्तम꣢म् । व꣣रुण । पा꣡श꣢꣯म् । अ꣣स्म꣢त् । अ꣡व꣢꣯ । अ꣣धम꣢म् । वि । म꣣ध्यम꣢म् । श्र꣣थाय । अ꣡थ꣢꣯ । आ꣣दित्य । आ । दित्य । व्रते꣢ । व꣣य꣢म् । त꣡व꣢꣯ । अ꣣नाग꣡सः꣢ । अ꣣न् । आग꣡सः꣢ । अ꣡दि꣢꣯तये । अ । दि꣣तये । स्याम ॥५८९॥


स्वर रहित मन्त्र

उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमꣳ श्रथाय । अथादित्य व्रते वयं तवानागसो अदितये स्याम ॥५८९॥


स्वर रहित पद पाठ

उत् । उत्तमम् । वरुण । पाशम् । अस्मत् । अव । अधमम् । वि । मध्यमम् । श्रथाय । अथ । आदित्य । आ । दित्य । व्रते । वयम् । तव । अनागसः । अन् । आगसः । अदितये । अ । दितये । स्याम ॥५८९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 589
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

जब मनुष्य अपने जीवन में आराम व सुख को लक्ष्य बनाकर चलता है तो यह 'शुनः शेप'=सुख का निर्माण करनेवाला [शुनं- सुखं, शेप्-जव बतमंजम] पतन-गर्त की ओर चलता है–‘आजीगर्ति' [अज गतौ गर्त = गढ़ा ] ।

प्रारम्भ में यह मानस पवित्रता व प्रभु-महिमा के दर्शन के लिए शास्त्रों का अध्ययन न करके आमोद-प्रमोद के लिए पढ़ने लगता है। यह इसका ‘ज्ञानसंग' कहलाता है। यह एकदम भौतिक बन्धन तो नहीं, पर है बन्धन ही। यही यहाँ ‘उत्तम बन्धन' कहलाता है और पाशों के अधिष्ठाता वरुण' से प्रार्थना की गई है कि हे (वरुण) = अनृतवादियों को जालों में जकड़नेवाले प्रभो! (अस्मत्) = हमसे इस (उत्तमं पाशम्) = उत्तम बन्धन को (उत्) = बाहर [out ] करो। हमें इस बन्धन से बाहर निकाल दो।

सुख को लक्ष्य बनानेवाला मनुष्य नाना प्रकार की व्यवस्थाओं में लगा हुआ भी शान्त नहीं हो पाता। कभी कुछ और कभी कुछ वह करता ही रहता है। यह उसका ‘कर्मसङ्ग' कहलाता है। इसे दूर करने के लिए प्रार्थना करते हैं कि हे वरुण ! हमारे इस (मध्यमम्) = मध्यम बन्धन को (वि-श्रथाय) = ढीला कीजिए | व्यर्थ हाथ-पैर पटकना छोड़कर हम ‘शान्त-भाव' से जीवन यापन कर सकें। भागदौड़ में न होकर 'शनैः चर' हों ।

सुख की ओर बढ़नेवाला मनुष्य सम्पत्ति जुटाकर नौकरों से कार्य कराता हुआ स्वयं आराम लेने लगता है। इस समय इसका जीवन 'प्रमाद, आलस्य व निद्रा' में चलता है। ‘खाना, सोना', बस यही इसका कार्य रह जाता है। यह इसका निकृष्ट बन्धन है। इसलिए प्रार्थना करते हैं कि (अधमम्) = इस निकृष्ट बन्धन को भी अव हमसे दूर कीजिए।

निद्रा व आलस्य को परे फेंककर (अथ) = अब हे (आदित्य) = आदानकर ! खारे समुद्र से भी शुद्ध जल का ग्रहण करनेवाले सूर्य ! (वयम्) = हम (तव व्रते) = तेरे व्रत में चलकर - तेरे व्रत में स्थिर होकर (अनागसः) = निष्पाप होते हुए (अदितये) = बन्धनों से मोक्ष के लिए (स्याम) = समर्थ हों। सूर्य निष्कामवृत्ति से अपने पथ पर आगे और आगे बढ़ता चलता है। हम भी इसी क्रिया को अपनाएँ।

भावार्थ -

सूर्य के सतत - सरणरूप व्रत में चलता हुआ मैं अपने को सभी पाशों से मुक्त कर सकूँ।

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