Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 617
ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
5

स꣣ह꣡स्र꣢शीर्षाः꣣ पु꣡रु꣢षः सहस्रा꣣क्षः꣢ स꣣ह꣡स्र꣢पात् । स꣢꣯ भूमि꣢꣯ꣳ स꣣र्व꣡तो꣢ वृ꣣त्वा꣡त्य꣢तिष्ठद्द꣣शाङ्गुल꣢म् ॥६१७॥

स्वर सहित पद पाठ

स꣣ह꣡स्र꣢शीर्षाः । स꣣ह꣡स्र꣢ । शी꣣र्षाः । पु꣡रु꣢꣯षः । स꣣हस्राक्षः꣢ । स꣣हस्र । अक्षः꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢पात् । स꣣ह꣡स्र꣢ । पा꣣त् । सः꣢ । भू꣡मि꣢꣯म् । स꣣र्व꣡तः꣢ । वृ꣣त्वा꣢ । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣣तिष्ठत् । दशाङ्गुल꣢म् । द꣣श । अङ्गुल꣢म् ॥६१७॥


स्वर रहित मन्त्र

सहस्रशीर्षाः पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिꣳ सर्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥६१७॥


स्वर रहित पद पाठ

सहस्रशीर्षाः । सहस्र । शीर्षाः । पुरुषः । सहस्राक्षः । सहस्र । अक्षः । सहस्रपात् । सहस्र । पात् । सः । भूमिम् । सर्वतः । वृत्वा । अति । अतिष्ठत् । दशाङ्गुलम् । दश । अङ्गुलम् ॥६१७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 617
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
Acknowledgment

पदार्थ -

एक छोटी-सी घड़ी का निर्माण करनेवाला शिल्पी कितना कुशल व तीव्र मस्तिष्कवाला प्रतीत होता है। घड़े को बनानेवाला कुम्हार कितनी विलक्षण आँख की शक्तिवाला है। किसी एक साधारण सी वस्तु के निर्माण करनेवाले को भी किस प्रकार भाग-दौड़ करनी पड़ती है? इन सब वस्तुओं का निर्माण करनेवालों के मस्तिष्क, चक्षु व पाँवों की शक्ति का ध्यान करते हुए जब एक भक्त इस अनन्त से संसार के निर्माता का ध्यान करता है तो कह उठता है कि- (सहस्त्रशीर्षाः पुरुषः) = वह प्रभु तो अनन्त सिरोंवाला होगा। इस सारे ब्रह्माण्डरूप पुर में निवास करनेवाला [पुरि वसति] वह प्रभु कितने महान् मस्तिष्कवाला होगा? (सहस्त्राक्षः) = उसकी आँखे अनन्त होंगी और (सहस्रपात्) = उसके पाँव भी अनन्त होंगे। क्या कोई ऐसा स्थान भी होगा जहाँ उस प्रभु की सोचने, देखने व चलने की शक्ति का अभाव हो । नहीं! वह तो सर्वत्र व्यापक ज्ञानमय है, सर्वद्रष्टा है, तथा सर्वशक्तिमान् है। प्राणी के मस्तिष्क में भी उसी प्रभु की शक्ति का अंश है, आँखों में उसी प्रभु की दर्शनशक्ति काम कर रही है और पाँव में चलने की शक्ति भी उसी की दी हुई है।

इतना ही नहीं, वे प्रभु इस ब्रह्माण्ड से भी सीमित नहीं हो गये। (सः) = वे प्रभु (भूमिम्) = [भवतीति] इस उत्पन्न ब्रह्माण्ड को (सर्वतः) = चारों ओर से (वृत्वा) = आवृत्त करके (दशांगुलम्) = इस दशांगुल ब्रह्माण्ड को (अत्यतिष्ठत्) = लाँघ कर विद्यमान हैं। गर्भ जैसे माता के एक देश में होता है उसी प्रकार यह सारा ब्रह्माण्ड उस प्रभु के एक देश में है - वे प्रभु ‘हिरण्यगर्भ' हैं—सारे ज्योतिर्मय पिण्डों को अपने गर्भ में लिये हुए हैं। यह सारा संसार उस प्रभु के सामने दशांगुल मात्र है। पञ्च तन्त्रात्माओं व पञ्चस्थूलभूतों का खेल होने से भी ये ‘दशांगुल' हैं। प्रभु इस दशांगुल संसार से परे भी रह रहें हैं। जीव का हृदय भी दशांगुल कहलाता है - प्रभु का दर्शन जीव इस दशांगुल हृदय में ही करता है। प्रभु का यही 'परम परार्ध'=सर्वोत्कृष्ट निवास स्थान है।

इस प्रकार प्रभु का ध्यान करनेवाला व्यक्ति प्रभु को नार= नरसमूह है अयन=निवासस्थान जिसका, उस ‘नारायण' के रूप में देखता है और स्वयं भी नरसमूह का शरण बनता हुआ 'नारायण' हो जाता है।

भावार्थ -

नारायण का स्मरण करते हुए मैं नारायण ही बन जाऊँ।
 

इस भाष्य को एडिट करें
Top