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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 620
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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ता꣡वा꣢नस्य महि꣣मा꣢꣫ ततो꣣ ज्या꣡या꣢ꣳश्च꣣ पू꣡रु꣢षः । उ꣣ता꣡मृ꣢त꣣त्व꣡स्येशा꣢꣯नो꣣ य꣡दन्ने꣢꣯नाति꣣रो꣡ह꣢ति ॥६२०॥

स्वर सहित पद पाठ

ता꣡वा꣢꣯न् । अ꣣स्य । महिमा꣢ । त꣡तः꣢꣯ । ज्या꣡या꣢꣯न् । च꣣ । पू꣡रु꣢꣯षः । उ꣣त꣢ । अ꣣मृतत्व꣡स्य꣢ । अ꣣ । मृतत्व꣡स्य꣢ । ई꣡शा꣢꣯नः । यत् । अ꣡न्ने꣢꣯न । अ꣣तिरो꣡ह꣢ति । अ꣣ति । रो꣡ह꣢꣯ति ॥६२०॥


स्वर रहित मन्त्र

तावानस्य महिमा ततो ज्यायाꣳश्च पूरुषः । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥६२०॥


स्वर रहित पद पाठ

तावान् । अस्य । महिमा । ततः । ज्यायान् । च । पूरुषः । उत । अमृतत्वस्य । अ । मृतत्वस्य । ईशानः । यत् । अन्नेन । अतिरोहति । अति । रोहति ॥६२०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 620
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

जितना फैला हुआ अनन्त - सा यह ब्रह्माण्ड है (तावान्) = उतनी ही (अस्य महिमा) = इस सर्वाधार प्रभु की महिमा है।

जहाँ-जहाँ विभूति, श्री व ऊर्जा है, वह सब प्रभु की विभूति का अंश ही है। सूर्य-चन्द्र-तारे सभी उस प्रभु की दीप्ति से दीप्त हो रहे हैं [तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ] । वस्तुतः हिमवान् पर्वत, समुद्र, सम्पूर्ण पृथिवी ये सब उस प्रभु की महिमा का कीर्तन कर रहे हैं। वह (पुरुष:) = सारे ब्रह्माण्ड में निवास करनेवाला प्रभु (ततः च) = उस सारे ब्रह्माण्ड से भी (ज्यायान्) = बहुत बड़े हैं। बड़े क्या वे तो अनन्त हैं, यह सान्त जगत् उस प्रभु के एकदेश में ही तो है। उस प्रभु की महिमा का क्या कोई अन्त है ?

इस जन्म-मृत्युवाले संसार के जहाँ वे प्रभु स्वामी हैं, वहाँ (अमृतत्वस्य उत) = मोक्षलोक के भी वे (ईशान:) = ईशान हैं। मुक्तात्मा स्वच्छन्दता से उस प्रभु में विचरते हुए भी नये जगत् का व्यापार करने में समर्थ नहीं है। उन्हें यह स्वतन्त्रता नहीं कि वे एक नया सूर्य रचकर अलग दुनिया बना डालें। उस प्रभु की व्यवस्था के अनुसार परामुक्ति की समाप्ति पर इन्हें इहलोक में लौटना है।

(यत्) = जो कुछ (अन्नेन) = अन्न के द्वारा (अतिरोहति) = बढ़ता है, उस शरीरादि के प्रभु ही ईशान हैं। मुझे उन्नति के साधन के लिए यह शरीर प्रभु ने साधन के रूप से प्राप्त कराया है। इसपर मेरा स्वामित्व नहीं - स्वामित्व उस प्रभु का ही है। इस तत्त्व को समझ लेने पर ही मैं [निर्भयः, निरहंकार:] होकर शान्ति का लाभ करनेवाला बनूँगा।
 

भावार्थ -

मैं इस तत्त्व को समझँ कि मेरे शरीर के भी ईशान वे प्रभु ही हैं।

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