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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 634
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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अ꣡दृ꣢श्रन्नस्य के꣣त꣢वो꣣ वि꣢ र꣣श्म꣢यो꣣ ज꣢ना꣣ꣳ अ꣡नु꣢ । भ्रा꣡ज꣢न्तो अ꣣ग्न꣡यो꣢ यथा ॥६३४॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡दृ꣢꣯श्रन् । अ꣣स्य । केत꣡वः꣢ । वि । र꣣श्म꣡यः꣢ । ज꣡ना꣢꣯न् । अ꣡नु꣢꣯ । भ्रा꣡ज꣢꣯न्तः । अ꣣ग्न꣡यः꣢ । य꣣था ॥६३४॥


स्वर रहित मन्त्र

अदृश्रन्नस्य केतवो वि रश्मयो जनाꣳ अनु । भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥६३४॥


स्वर रहित पद पाठ

अदृश्रन् । अस्य । केतवः । वि । रश्मयः । जनान् । अनु । भ्राजन्तः । अग्नयः । यथा ॥६३४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 634
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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पदार्थ -

प्रस्कण्व स्वयं ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान का प्रकाश औरों तक पहुँचाता है। इसका जीवन व इसकी वाणियाँ औरों को प्रभु का प्रकाश प्राप्त कराती हैं। (अस्य) = इस मन्त्र के ऋषि प्रस्कण्व की (केतव:) = [कित निवासे रोगापनयने च] उत्तम निवास की कारणभूत तथा रोगों को दूर करनेवाली (रश्मयः) = ज्ञान की रश्मियाँ-किरणें-(जनान् अनु) = लोगों का लक्ष्य करके (वि अदृश्रन्) = सब वस्तुओं को यथावत् दिखलाती हैं, अर्थात् प्रस्कण्व वेद में उपदिष्ट परमात्मा से दिये गये ज्ञान को लोगों में इस प्रकार प्रचारित करता है कि लोगों का निवास - रहने का ढङ्ग उत्तम होता जाए तथा वस्तुओं के यथावत् ज्ञान से उनका यथायोग करते हुए उनके अतियोग व अयोग से बचते हुए - वे रोगों का शिकार न हों और परस्पर उनका व्यवहार ऐसा हो जैसा एक उत्तम नागरिक का होना चाहिए ।

इस कण्व से दिये गये ज्ञान इस प्रकार के होते हैं (यथा) = जैसे (भ्राजन्तः) = दीप्त होती हुई (अग्नयः) = अग्नियाँ। दीप्त अग्नि जैसे सब मलों का विध्वंस कर देती हैं, इसी प्रकार इस प्रस्कण्व से प्रसारित ज्ञान की रश्मियाँ लोगों के मनों की मलिनताओं को नष्ट कर उन्हें पवित्र बना देती हैं। वह ज्ञान का प्रचार ही क्या जो हृदयान्धकार को नष्ट न करे?

भावार्थ -

हम स्वयं प्रस्कण्व = प्रकृष्ट मेधावी बनकर ज्ञानरश्मियों को इस माधुर्य से फैलाएँ कि १. लोगों का निवास उत्तम हो, २ . उनके रोग दूर हों, उनके मनों की मलिनताएँ ऐसे भस्म हो जाएँ जैसे चमकती अग्नि में कूड़ा-करकट भस्म हो जाता है।

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