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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 635
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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त꣣र꣡णि꣢र्वि꣣श्व꣡द꣢र्शतो ज्योति꣣ष्कृ꣡द꣢सि सूर्य । वि꣢श्व꣣मा꣡भा꣢सि रोच꣣न꣢म् ॥६३५॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣣र꣡णिः꣢ । वि꣣श्व꣡द꣢र्शतः । वि꣣श्व꣢ । द꣣र्षतः । ज्योतिष्कृ꣢त् । ज्यो꣣तिः । कृ꣢त् । अ꣣सि । सूर्य । वि꣡श्व꣢꣯म् । आ । भा꣣सि । रोचन꣢म् ॥६३५॥


स्वर रहित मन्त्र

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमाभासि रोचनम् ॥६३५॥


स्वर रहित पद पाठ

तरणिः । विश्वदर्शतः । विश्व । दर्षतः । ज्योतिष्कृत् । ज्योतिः । कृत् । असि । सूर्य । विश्वम् । आ । भासि । रोचनम् ॥६३५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 635
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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पदार्थ -

प्रभु इस कण्व से कहते हैं कि तू सूर्य तो बना है। अब हे सूर्य-ज्ञान की दीप्ति से चमकनेवाले! तुझे यह ध्यान करना है कि तू १. (तरणिः असि) = काम-क्रोधादि को तैर जानेवाला है। प्रचार-कार्य में-प्राजापत्य यज्ञ में सैकड़ों प्रकार के लोगों से तेरा वास्ता पड़ेगा। कोई कुछ कहेगा और कोई कुछ, तुझे क्रोध में नहीं आना। २.( विश्वदर्शत:) = तुझे सबका देखनेवाला बनना है, कभी अपने में ही केन्द्रित न हो जाना । तेरा आदर्श दुःखतप्त प्राणियों का आर्तिनाशन हो। तू लोकहित में आनन्द लेनेवाला बनना। ३. (ज्योतिः कृत् असि) = लोकहित के दृष्टिकोण से तू ज्ञान की ज्योति को चारों ओर फैलाना। अज्ञानग्रस्त व्यक्ति ही सब प्रकार के कष्टों के भाजन होते हैं। अविद्या सब कष्टों की जननी है, अतः इस अविद्या के नाश के लिए तुझे सदा यत्नशील होना है। ४. परन्तु इस बात को न भूलना कि तू (विश्वम्) = सम्पूर्ण संसार को - सभी लोगों को (रोचनम्) = बड़े रुचिकर ढङ्ग से, किसी प्रकार की कड़वाहट के बिना - बड़ी मधुरता से (आभासि) = दीप्त करता है। उपदेश में बड़ी मधुर व श्लक्ष्ण [ smooth] वाणी का प्रयोग करना चाहिए।

भावार्थ -

ज्ञान के प्रचार में मधुर वाणी का ही प्रयोग करना चाहिए।

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