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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 636
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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प्र꣣त्य꣢ङ् दे꣣वा꣢नां꣣ वि꣡शः꣢ प्र꣣त्य꣡ङ्ङुदे꣢꣯षि꣣ मा꣡नु꣢षान् । प्र꣣त्य꣢꣫ङ् विश्व꣣꣬ꣳ स्व꣢꣯र्दृ꣣शे꣢ ॥६३६॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣣त्य꣢ङ् । प्र꣣ति । अ꣢ङ् । दे꣣वा꣡ना꣢म् । वि꣡शः꣢꣯ । प्र꣣त्य꣢ङ् । प्र꣣ति । अ꣢ङ् । उत् । ए꣣षि । मा꣡नु꣢꣯षान् । प्र꣣त्य꣢ङ् । प्र꣣ति । अ꣢ङ् । वि꣡श्व꣢꣯म् । स्वः꣢꣯ । दृ꣣शे꣢ ॥६३६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यङ् देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् । प्रत्यङ् विश्वꣳ स्वर्दृशे ॥६३६॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रत्यङ् । प्रति । अङ् । देवानाम् । विशः । प्रत्यङ् । प्रति । अङ् । उत् । एषि । मानुषान् । प्रत्यङ् । प्रति । अङ् । विश्वम् । स्वः । दृशे ॥६३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 636
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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विषय - प्रभु के दर्शन के लिए उपाय - त्रयी
पदार्थ -
हे प्रस्कण्व तू १. (देवानां विश:) = देव-प्रजाओं की (प्रत्यङ) = ओर जाता हुआ (उदेषि) = उदय को प्राप्त होता है—अपने जीवन को उन्नत करता है। मनुष्य को यही चाहिए कि वह प्रतिदिन दिव्य गुणोंवाले लोगों को अपना लक्ष्य बनाकर अपने जीवन को अधिकाधिक दिव्य बनाने का प्रयत्न करे। अपने में दैवी सम्पत्ति का अवतारण ही मनुष्य का चरम उद्देश्य है। २. हे प्रस्कण्व! तू (मानुषान्) = जो मनुष्य हैं-human - दयालु हैं जिनमें क्रूर राक्षसीवृत्ति नहीं है, उनकी (प्रत्यङ्) = ओर जाता हुआ (उदेषि) = अपने जीवन को उन्नत करता है। 'दया' वह गुण है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है। यही गुण मनुष्य को परमेश्वर के समीप प्राप्त कराता है। ३. हे प्रस्कण्व! तू अपने जीवन को दिव्य तथा दयालु बनाकर (विश्वम्) = संसार के सभी प्राणियों के (प्रत्यङ्) = प्रति जानेवाला बन । सभी के दुःखों को दूर करने के लिए तुझे सचेष्ट होना चाहिए। ये ही गुण तुझे (स्वर्दृशे) = उस स्वयं देदीप्यमान ज्योतिर्मय - प्रभु के दर्शन के योग्य बनाएँगे।
भावार्थ -
प्रभु का दर्शन उसी को होता है जो १. अपने अन्दर दिव्यता को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हो, २. दयालु बने तथा ३. मानवहित के लिए सदा प्रयत्नशील हो।
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