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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 648
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - 0
5
पू꣡र्व꣢स्य꣣ य꣡त्ते꣢ अद्रिवो꣣ꣳऽशु꣢꣯र्मदा꣢꣯य । सु꣣म्न꣡ आ धे꣢꣯हि नो वसो पू꣣र्तिः꣡ श꣢विष्ठ शस्यते । व꣣शी꣢꣫ हि श꣣क्रो꣢ नू꣣नं꣡ तन्नव्य꣢꣯ꣳ सं꣣न्य꣡से꣢ ॥६४८
स्वर सहित पद पाठपू꣡र्व꣢꣯स्य । यत् । ते꣣ । अद्रिवः । अ । द्रिवः । अँशुः꣢ । म꣡दा꣢꣯य । सु꣣म्ने꣢ । आ । धे꣣हि । नः । वसो । पूर्तिः꣢ । श꣣विष्ठ । शस्यते । व꣣शी꣢ । हि । श꣣क्रः꣢ । नू꣣न꣢म् । तत् । न꣡व्य꣢꣯म् । सं꣣न्य꣡से꣢ ॥६४८॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वस्य यत्ते अद्रिवोꣳऽशुर्मदाय । सुम्न आ धेहि नो वसो पूर्तिः शविष्ठ शस्यते । वशी हि शक्रो नूनं तन्नव्यꣳ संन्यसे ॥६४८
स्वर रहित पद पाठ
पूर्वस्य । यत् । ते । अद्रिवः । अ । द्रिवः । अँशुः । मदाय । सुम्ने । आ । धेहि । नः । वसो । पूर्तिः । शविष्ठ । शस्यते । वशी । हि । शक्रः । नूनम् । तत् । नव्यम् । संन्यसे ॥६४८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 648
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 8
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 8
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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विषय - प्रजापति का कर्त्तव्य
पदार्थ -
१. शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला, बलयुक्त कर्मों को करनेवाला, ऐश्वर्यशाली राष्ट्र का शासक ‘इन्द्र’ कहलाता है। इसका प्रथम कर्त्तव्य इन शब्दों में सूचित हुआ है कि (इन्द्रम्) = राजा को (धनस्य) = धन के (सातये) = उचित संविभाग के लिए (हवामहे) = पुकारते हैं। जिस राष्ट्र में धन कुछ व्यक्तियों में केन्द्रित हो जाता है, वह राष्ट्र उसी प्रकार रोगी हो जाता है जिस प्रकार वह शरीर जिसमें रुधिर किसी एक अङ्ग में इकट्ठा हो जाए। राजा धन को एक स्थान पर केन्द्रित न होने दे।
२. (जेतारम्) = उस राजा को पुकारते हैं जो विजयशील है, (अपराजितम्) = कभी पराजित नहीं होता। राजा स्वयं तो व्यसनी होना ही नहीं चाहिए, वह राष्ट्र के बाह्य शत्रुओं का भी अभिभव कर सके। प्रजा विजेता का ही साथ देती है।
३. (सः) = वह राजा (न:) = हमें (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं से (अति) = परे (सु-अर्षत्) = उत्तमता से प्राप्त कराए। राष्ट्र में धर्म के नाम पर परस्पर घृणा प्रजा के लिए विनाशकारी है, निर्बल करनेवाली है । Secular state का अभिप्राय यही है कि वह प्रभु की उपासना के प्रकारविशेष पर बल देनेवाली न हो। राष्ट्र को
४. (पूर्वस्य) = [पूर्व पूरणे] राष्ट्र में शिक्षा भरनेवाले हे (अद्रिवः) = वज्रवाले राजन्! (यत्) = जो (ते) = तेरी (अंशुः) = ज्ञानकिरण है- ज्ञान का सर्वत्र प्रसारण है, यह (मदाय) = राष्ट्र के वास्तविक हर्ष का कारण बनती है। राष्ट्र का कोई व्यक्ति अशिक्षित न रह जाए इस बात के लिए राजा को व्यवस्था करनी है। जो माता-पिता शिक्षा के योग्य बालकों को शिक्षणालयों में न भेजें वे दण्डनीय हों। ‘अद्रिवः' शब्द राजा के हाथ में वज्र देकर यही सूचित कर रहा है।
५. हे (वसो) = उत्तम ढङ्ग से प्रजा को बसानेवाले राजन्! (नः) = हम सबको सुम्ने सुम्न में (आधेहि) = सर्वथा स्थापित कीजिए। सुम्न शब्द का प्रथम अर्थ है- (सु) = उत्तम (म्न) = अभ्यास, उत्तम ज्ञान की प्राप्ति। इसका दूसरा अर्थ Hymn = स्तोत्र व प्रभुस्तवन है और तीसरा यह आनन्द का वाचक है। राजा को चाहिए उसकी प्रजा ज्ञानयुक्त होकर प्रभु की स्तुति करनेवाली बने और इस प्रकार आनन्द का लाभ करे।
६. (शविष्ठ) = हे गतिशील व शक्तिशाली राजन्! (पूर्तिः) = प्रजा का पालन व पूरण ही (शस्यते) = तेरा प्रशंसित कर्म है। तूने उत्तम राष्ट्र-व्यवस्था के द्वारा प्रजा को पूर्णता की ओर ले-चलना है। उनका शरीर स्वस्थ हो, मन निद्वेष हो, बुद्धि प्रकाशमय हो।
७. (वशी) = जो स्वयं अपने पर काबू कर प्रजाओं को भी वश में कर सकता है (हि) = निश्चय से वही (शक्रः) = समर्थ होता है- शासन-व्यवस्था चला पाता है, एवं, राजा को स्वयं व्यसनों से अवश्य ऊपर उठना चाहिए।
यदि राजा इस प्रकार राष्ट्र का शासन करता हुआ अपने इन कर्त्तव्यों का पालन करता है (तत्) = तो वह (नूनम्) = [न ऊनम्] पूर्ण तथा नव्यं [नु स्तुतौ] प्रशंसनीय (संन्यसे) = प्रभु की पूजा करता है। राजा की सच्ची प्रभु-पूजा यही है कि वह उपर्युक्त राज-कर्त्तव्यों में लगा रहे । [O king this is your perfect and praiseworthy worship.]
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