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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 654
ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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द꣡वि꣢द्युतत्या रु꣣चा꣡ प꣢रि꣣ष्टो꣡भ꣢न्त्या कृ꣣पा꣢ । सो꣡माः꣢ शु꣣क्रा꣡ गवा꣢꣯शिरः ॥६५४॥

स्वर सहित पद पाठ

द꣡धि꣢꣯द्युतत्या । रु꣡चा꣢ । प꣣रिष्टो꣡भ꣢न्त्या । प꣣रि । स्तो꣡भ꣢꣯न्त्या । कृ꣡पा꣢ । सो꣡माः꣢꣯ । शु꣣क्रा꣢ । ग꣡वा꣢꣯शिरः । गो । आ꣣शिरः ॥६५४॥


स्वर रहित मन्त्र

दविद्युतत्या रुचा परिष्टोभन्त्या कृपा । सोमाः शुक्रा गवाशिरः ॥६५४॥


स्वर रहित पद पाठ

दधिद्युतत्या । रुचा । परिष्टोभन्त्या । परि । स्तोभन्त्या । कृपा । सोमाः । शुक्रा । गवाशिरः । गो । आशिरः ॥६५४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 654
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

‘कश्यप' शब्द का अर्थ (पश्यकः) = तत्त्वद्रष्टा है। पश्यक शब्द ही वर्ण-विपर्यय से कश्यप हो गया है। यह औरों के अन्धकार को भी दूर करने के लिए प्रयत्नशील होता है। इससे ज्ञान की वे किरणमरीचियाँ चारों ओर फैलती हैं जोकि अज्ञानान्धकार को विलुप्त कर देती हैं। इन ' मरीचियोंवाला' होने के कारण ही यह ‘मारीच' है और पूरा नाम ‘कश्यप मारीच' । सूर्य प्रकाशमय है - औरों को प्रकाश देता है, इसी प्रकार यह भी ‘कश्यप'=ज्ञानमय है - औरों तक ज्ञान की मरीचियों का पहुँचानेवाला ‘मारीच' है । यह कैसे पता लगे कि यह व्यक्ति 'कश्यप मारीच' है? (दविद्युतत्या रुचा) = जगमगाती हुई दीप्ति से [रुच दीप्तौ] और (परिष्टोभन्त्या कृपा) = चारों ओर दु:खों का निवारण करते हुए सामर्थ्य से [ स्तुभ् = to stop कृप्=सामर्थ्य]। कश्यप मारीच के दो लक्षण हैं, १. वह ज्ञान की दीप्ति से जगमगा रहा है और २. अपने उस ज्ञान के सामर्थ्य से कष्ट पीड़ित लोगों के कष्टों का निवारण कर रहा है । यह आर्तों की आर्ति का हाण कर रहा है । यह कश्यप मारीच है । क्यों ? जगमगाने से और सन्तापहारी सामर्थ्य से । 
 
यह मारीच कौन बन पाता है ? इस प्रश्न का उत्तर मन्त्र के उत्तरार्ध में इस प्रकार देते हैं कि - १. सोमाः, २. शुक्रा:, ३. गवाशिरः । सबसे प्रथम वे व्यक्ति जो सोमाः = सौम्य, विनीत हैं वे कश्यप बनते हैं। विनीतता के बिना हृदयाकाश में ज्ञान सूर्य का उदय नहीं होता । विनय विद्या देती है और विद्या विनय । अविनीतता व अहंकार अज्ञान का पर्याय है। दूसरे स्थान पर 'शुक्राः' कश्यप बनते हैं [शुच्=पवित्रता]। जो व्यक्ति अपने सब कार्यों को शुद्ध करने का प्रयत्न करता है वह शुक्र है और यह शुक्र ही कश्यप मारीच बनता है । अन्त में हम गवाशिरः बनें । हम ज्ञानेन्द्रियों को ‘आशृ'=चारों ओर से हिंसित करनेवाले, अर्थात् काबू करनेवाले बनें । ये इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं। मन उनका अनुविधान करता है और हमारी प्रज्ञा विनष्ट हो जाती है। कश्यप मारीच वही बन सकता है जोकि इन इन्द्रियों को वश में करे ।

भावार्थ -

विनीत, व्यवहारशुचि व जितेन्द्रिय बनकर हम कश्यप मारीच बनें।

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