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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 657
ऋषिः - शतं वैखानसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प꣡व꣢मानस्य ते कवे꣣ वा꣢जि꣣न्त्स꣡र्गा꣢ असृक्षत । अ꣡र्व꣢न्तो꣣ न꣡ श्र꣢व꣣स्य꣡वः꣢ ॥६५७॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡व꣢꣯मानस्य । ते꣣ । कवे । वा꣡जि꣢꣯न् । स꣡र्गाः꣢꣯ । अ꣣सृक्षत । अ꣡र्व꣢꣯न्तः । न । श्र꣣वस्य꣡वः꣢ ॥६५७॥


स्वर रहित मन्त्र

पवमानस्य ते कवे वाजिन्त्सर्गा असृक्षत । अर्वन्तो न श्रवस्यवः ॥६५७॥


स्वर रहित पद पाठ

पवमानस्य । ते । कवे । वाजिन् । सर्गाः । असृक्षत । अर्वन्तः । न । श्रवस्यवः ॥६५७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 657
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

वि+खन्+असुन्-विखनस् से स्वार्थ में अण् आकर 'वैखानस' शब्द बना है। इसका अर्थ है‘विशेषरूप से खोद डालनेवाला।' मनुष्य के हृदय में स्वभावतः कुछ-न-कुछ वासनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं और गृहस्थ का वातावरण तो उनकी उत्पत्ति के लिए अधिक अनुकूल होता है। इन वासनाओं का उखाड़ डालना ही एक वानप्रस्थ के जीवन का लक्ष्य होता है। ये वासनाएँ सैकड़ों हैं - इसी से यहाँ शत-सौ—यह विशेषण दिया गया है । शतशः वासनाओं से संघर्ष करके जब यह उन्हें उखाड़ डालता है, तब इसका जीवन पवित्र हो जाता है, इसलिए मन्त्र में कहते हैं कि (पवमानस्य) = सदा अपने को पवित्र करने के स्वभावाले हे वैखानस ! (ते) = तेरे द्वारा ये (सर्गाः) = छोटी-छोटी सृष्टियाँ, अर्थात् निर्माणात्मक कार्य (असृक्षत) = रचे जाते हैं। 'एक वानप्रस्थ अपने को पवित्र कैसे बना सका' इस प्रश्न का उत्तर (कवे) = इस सम्बोधन में उपस्थित है। यह क्रान्तदर्शी है - यह वस्तुओं के ऊपरले पृष्ठ को ही देखकर लुब्ध हो जानेवाला नहीं है । एक कवि वस्तुतत्त्व को समझता हुआ उलझता नहीं और परिणामतः पवित्र जीवनवाला होता है। ज्ञान उसे नैर्मल्य प्राप्त करा देता है । ज्ञान से प्राप्त निर्मलता के कारण यह कभी विषय-प्रवण नहीं होता और इसी से इसकी शक्ति विकीर्ण नहीं होती । यह वाज=शक्ति-सम्पन्न बना रहता है । यही भावना यहाँ (वाजिन्) = इस सम्बोधन से व्यक्त हो रही है। इस प्रकार इस वैखानस का मन पवित्र होता है, बुद्धि सूक्ष्म तत्त्वज्ञान की साधिका होती है और शरीर व इन्द्रियाँ शक्ति सम्पन्न होती हैं । शरीर, मन व बुद्धि तीनों दृष्टिकोणों से विकसित । होकर यह वैखानस जिन शिक्षणालय आदि संस्थाओं का निर्माण करता है, वे सब (सर्ग) = रचनाएँ (अर्वन्तः न) = अन्धकार के नाशक होते हैं [अर्व्–हिंसायाम्]। अज्ञानान्धकार के नाश के साथ (श्रवस्यवः) = [श्रवस्+यु] ज्ञान के प्रकाश से युक्त करनेवाले ये कार्य होते हैं [यु= मिश्रण]। एवं, यह बात स्पष्ट है कि वानप्रस्थ के सर्ग ज्ञान के प्रकाश को फैलाने के उद्देश्य से ही होते हैं ।

भावार्थ -

एक वानप्रस्थ अपने को पवित्र, तत्त्वद्रष्टा, शक्ति- सम्पन्न बनाने के लिए प्रयत्न करता है और लोकहित के लिए किसी-न-किसी अज्ञानान्धकार नाशक, ज्ञान-प्रसारक संस्था का निर्माण करता है ।

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