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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 656
ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ऋ꣣ध꣡क्सो꣢म स्व꣣स्त꣡ये꣢ संजग्मा꣣नो꣢ दि꣣वा꣡ क꣢वे । प꣡व꣢स्व꣣ सू꣡र्यो꣢ दृ꣣शे꣢ ॥६५६॥

स्वर सहित पद पाठ

ऋ꣣ध꣢क् । सो꣣म । स्व꣣स्त꣡ये꣢ । सु꣣ । अस्त꣡ये꣢ । सं꣣जग्मानः꣢ । स꣣म् । जग्मानः꣢ । दि꣣वा꣢ । क꣣वे । प꣡व꣢꣯स्व । सू꣡र्यः꣢꣯ । दृ꣣शे꣢ ॥६५६॥


स्वर रहित मन्त्र

ऋधक्सोम स्वस्तये संजग्मानो दिवा कवे । पवस्व सूर्यो दृशे ॥६५६॥


स्वर रहित पद पाठ

ऋधक् । सोम । स्वस्तये । सु । अस्तये । संजग्मानः । सम् । जग्मानः । दिवा । कवे । पवस्व । सूर्यः । दृशे ॥६५६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 656
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

इस मन्त्र में कश्यप के लिए तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं – १. (सोम) = विनीत । विनीत ही कश्यप बनता है और कश्यप बनकर वह और अधिक विनीत हो जाता है । २. (कवे) = क्रान्तदर्शिन् ! गहराई तक जाकर वस्तु-तत्त्व को जाननेवाला ही कश्यप होता है। ३. (सूर्यः) = [षू प्रेरणे] तत्त्वज्ञानी बनकर यह सूर्य के समान औरों को भी प्रकाश प्राप्त कराता है। ऐसा करने से ही यह 'मारीच' बना है [मरीचियों]=ज्ञान-किरणोंवाला । इस प्रकार विनीत, क्रान्तदर्शी और दूसरों को भी प्रेरणा देनेवाला यह कश्यप (ऋधक्) = [ऋध=वृद्धौ] उत्तरोत्तर अपनी ज्ञान की सम्पत्ति को बढ़ाता है। (स्वस्तये) = ज्ञान को बढ़ाता हुआ (सु) = उत्तम (अस्ति) =  existence=जीवन के लिए होता है । इसका जीवन परिमार्जित व परिष्कृत होता चलता है । इस परिष्कृत जीवन में यह (दिवा संजग्मानः) = अधिकाधिक प्रकाश से युक्त होता चलता है [दिव्- प्रकाश ] | नये और नये प्रकाश से पूर्ण होता हुआ यह एक दिन (सूर्यः) = सूर्य के समान चमकने लगता है । यह ज्ञान की चरमावस्था है । यही 'ब्राह्मीस्थिति' है । ज्ञाननिष्ठ पुरुष ! (पवस्व) = तू खूब क्रियाशील हो । जिससे (दृशे) = लोग भी उस ज्ञान के प्रकाश को देख सकें। औरों को प्रकाश देने के लिए तू सूर्य के समान गतिशील हो ।

भावार्थ -

ज्ञानी बनकर, हम औरों को ज्ञान देनेवाले बनें ।

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