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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 662
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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स꣡ नः꣢ पृ꣣थु꣢ श्र꣣वा꣢य्य꣣म꣡च्छा꣢ देव विवाससि । बृ꣣ह꣡द꣢ग्ने सु꣣वी꣡र्य꣢म् ॥६६२॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । पृ꣢थु । श्र꣣वा꣡य्य꣢म् । अ꣡च्छ꣢꣯ । दे꣣व । विवाससि । बृह꣢त् । अ꣣ग्ने । सु꣡वी꣢र्यम् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् ॥६६२॥


स्वर रहित मन्त्र

स नः पृथु श्रवाय्यमच्छा देव विवाससि । बृहदग्ने सुवीर्यम् ॥६६२॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । नः । पृथु । श्रवाय्यम् । अच्छ । देव । विवाससि । बृहत् । अग्ने । सुवीर्यम् । सु । वीर्यम् ॥६६२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 662
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे (देव) = ज्योतिर्मय प्रभो ! (सः) = आप (नः) = हमें (अच्छ) = सम्यक् तथा (पृथु) = विस्तृत श्(रवाय्यम्)-ज्ञान को विवाससि =[विवासयसि] विशेषरूप से धारण कराते हो और इस प्रकार श्रवाय्यम् यज्ञ में बलि दे देने के योग्य काम-क्रोध आदि वासनारूप पशुओं को [काम: पशुः, क्रोधः पशुः = उप० ] (विवाससि) = हमसे दूर भगा देते हो । ज्ञान का परिणाम वासना- विध्वंस होना ही चाहिए। 

हे अग्ने-आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! हमें ज्ञान से पवित्र बनाकर वह (सुवीर्यम् )= उत्तम शक्ति प्राप्त कराइए जोकि बृहत् = सभी दृष्टियों से हमारी वृद्धि का कारण बनती है। बिना शक्ति के गुणों का वास नहीं होता । वीरता ही वरता को प्राप्त कराती है ।

भावार्थ -

ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करके हम 'भरद्वाज-बार्हस्पत्य' बनें ।

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