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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 676
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
दु꣣हान꣡ ऊध꣢꣯र्दि꣣व्यं꣡ मधु꣢꣯ प्रि꣣यं꣢ प्र꣣त्न꣢ꣳ स꣣ध꣢स्थ꣣मा꣡स꣢दत् । आ꣣पृ꣡च्छ्यं꣢ ध꣣रु꣡णं꣢ वा꣣꣬ज्य꣢꣯र्षसि꣣ नृ꣡भि꣢र्धौ꣣तो꣡ वि꣢चक्ष꣣णः꣢ ॥६७६॥
स्वर सहित पद पाठदु꣣हा꣢नः । ऊ꣡धः꣢꣯ । दि꣣व्य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् । प्र꣣त्न꣢म् । स꣣ध꣡स्थ꣢म् । स꣣ध꣢ । स्थ꣡म् । आ꣢ । अ꣣सदत् । आ꣣पृ꣡च्छ्य꣢म् । आ꣣ । पृ꣡च्छ्य꣢꣯म् । ध꣣रु꣢ण꣣म् । वा꣣जी꣢ । अ꣣र्षसि । नृ꣡भिः꣢꣯ । धौ꣡तः꣢ । वि꣣चक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ ॥६७६॥
स्वर रहित मन्त्र
दुहान ऊधर्दिव्यं मधु प्रियं प्रत्नꣳ सधस्थमासदत् । आपृच्छ्यं धरुणं वाज्यर्षसि नृभिर्धौतो विचक्षणः ॥६७६॥
स्वर रहित पद पाठ
दुहानः । ऊधः । दिव्यम् । मधु । प्रियम् । प्रत्नम् । सधस्थम् । सध । स्थम् । आ । असदत् । आपृच्छ्यम् । आ । पृच्छ्यम् । धरुणम् । वाजी । अर्षसि । नृभिः । धौतः । विचक्षणः । वि । चक्षणः ॥६७६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 676
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - सप्तगुण विशिष्ट ऊधस्
पदार्थ -
(दुहानः) = गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से सोम-रक्षा के द्वारा अपना पूरण करता हुआ व्यक्ति (ऊधः) = आनन्द के स्रोत प्रभु को (आसदत्) = प्राप्त करता है । (ऊधस्) = गौ के बाख को कहते हैं । वह जैसे दुग्धरूप अमृत का आशय है, उसी प्रकार वह प्रभु आनन्द के अमृत का आशय है। प्रभुरूप आनन्द का ऊधस् सप्तगुण विशिष्ट है । १. इसकी प्रथम विशेषता यह है कि (दिव्यम्) = यह अलौकिक है- - प्रकाशमय है। सांसारिक आनन्दों में कुछ देर तक आनन्द की प्रतीत के पश्चात् रोगादि के रूप में अन्धकार आ घेरता है । २. (मधु) = यह आनन्द का स्रोत मधुर है – मधुमय है। सांसारिक आनन्द प्रारम्भ में मधुर होते हुए भी परिणाम में विषोपम हो जाते हैं। उनकी आपात रमणीयता शीघ्र ही क्षीण होकर वे नीरस लगने लगते हैं । ३. (प्रियम्) = यह आनन्द एक तृप्ति देता है, जबकि सांसारिक आनन्द मनुष्य को अधिकाधिक अतृप्त करते हैं। परमात्मा-प्राप्ति के आनन्द में मनुष्य एक विशेष प्रकार की मस्ती का अनुभव करता है । ४. (प्रत्नम्) = यह सनातन [Eternal] है। कभी सूखनेवाला नहीं। भोगों में स्थाई आनन्द नहीं । ५. (सधस्थम्) = सबसे बड़ी बात यह है कि यह आनन्द का स्रोत सदा हमारे साथ [सध] विद्यमान [स्थ] है। इसके लिए हमें कहीं इधर-उधर भटकना नहीं । सांसारिक आनन्दों की प्राप्ति के लिए तो मनुष्य को सदा भटकना पड़ता है, मृगतृष्णा के मृग के समान दौड़ लगानी पड़ती है, परन्तु पा नहीं पाता, वे इससे दूर-ही-दूर चलते जाते हैं । ६. (पृच्छ्यम्) = यह स्रोत ही वस्तुत: सर्वथा जिज्ञास्य है [आ+प्रच्छ्] इसी के जानने के लिए हमें यत्नशील होना चाहिए । सांसारिक आनन्द के स्रोतों को ढूँढने में ही अपनी शक्ति लगा देना बुद्धिमत्ता नहीं । ७. (धरुणम्) = यह आनन्द का स्रोत, ढूँढा जाने पर, हमारा धारण करनेवाला होगा। सांसारिक आनन्द शक्तियों को जीर्ण कर नींव को ही जर्जर कर देते हैं ।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि - "कौन इस स्रोत तक पहुँचता है ?" इस प्रश्न का उत्तर मन्त्र में (‘वाजी, नृभिर्धौतः, विचक्षणः') = इन शब्दों से दिया गया है। १. सबसे प्रथम (वाजी) = शक्तिशाली ही इस स्रोत को प्राप्त करने का अधिकारी होता है। [ नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ] - निर्बलों से यह आत्मा प्राप्त नहीं है । २. (नृभिः धौत:) = दूसरे, जो व्यक्ति मनुष्यों से माँज दिया गया है, अर्थात् मनुष्यों के निरन्तर सम्पर्क में आकर जिसने अनुभव से बहुत कुछ सीखकर अपने को संस्कृत कर लिया है। ३. और अन्त में (विचक्षणः) = जिसकी चक्षु विशेषरूप से खुल गई हैं, जो दूरदृष्टि विद्वान् बन गया है, वही इस आनन्द के स्रोत को पाता है । यह स्रोत सप्त गुणविशिष्ट है, अत: इसे पानेवाला भी ‘सप्तर्षि' [ऋष्=गतौ] सप्तगुणस्रोत तक पहुँचनेवाला है।
भावार्थ -
हम सोम-रक्षा से अपना पूरण करते हुए इस अद्भुत आनन्द के स्रोत को पानेवाले बनें ।
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