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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 68
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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वि꣢꣫ त्वदापो꣣ न꣡ पर्व꣢꣯तस्य पृ꣣ष्ठा꣢दु꣣क्थे꣡भि꣢रग्ने जनयन्त दे꣣वाः꣢ । तं꣢ त्वा꣣ गि꣡रः꣢ सुष्टु꣣त꣡यो꣢ वाजयन्त्या꣣जिं꣡ न गि꣢꣯र्व꣣वा꣡हो꣢ जिग्यु꣣र꣡श्वाः꣢ ॥६८॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣢ । त्वत् । आ꣡पः꣢꣯ । न । प꣡र्व꣢꣯तस्य । पृ꣣ष्ठा꣢त् । उ꣣क्थे꣡भिः꣢ । अ꣣ग्ने । जनयन्त । दे꣣वाः꣢ । तम् । त्वा꣣ । गि꣡रः꣢꣯ । सु꣣ष्टु꣡तयः꣢ । सु꣣ । स्तुत꣡यः꣢ । वा꣣जयन्ति । आजि꣢म् । न । गि꣣र्ववा꣡हः꣢ । गि꣣र्व । वा꣡हः꣢꣯ । जि꣣ग्युः । अ꣡श्वाः꣢꣯ ॥६८॥


स्वर रहित मन्त्र

वि त्वदापो न पर्वतस्य पृष्ठादुक्थेभिरग्ने जनयन्त देवाः । तं त्वा गिरः सुष्टुतयो वाजयन्त्याजिं न गिर्ववाहो जिग्युरश्वाः ॥६८॥


स्वर रहित पद पाठ

वि । त्वत् । आपः । न । पर्वतस्य । पृष्ठात् । उक्थेभिः । अग्ने । जनयन्त । देवाः । तम् । त्वा । गिरः । सुष्टुतयः । सु । स्तुतयः । वाजयन्ति । आजिम् । न । गिर्ववाहः । गिर्व । वाहः । जिग्युः । अश्वाः ॥६८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 68
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

हे (अग्ने)=प्रभो! (उक्थेभिः) = स्तुतियों के द्वारा (त्वत्) = आपसे (देवा:) = दिव्य गुण [ divinity] (वि )= विशेषरूप से (जनयन्त)= प्रादुर्भूत होते हैं, (न) = जैसे (पर्वतस्य पृष्ठात्)=पर्वत- पृष्ठ से (आपः)=जल अवतीर्ण हुआ करते हैं। प्रभु का स्तोता अपने में दिव्यता को अवतीर्ण होता हुआ अनुभव करता है। क्रोध-द्वेषादि भावनाएँ उसे छोड़ जाती हैं।

२. (तम्) = देवरूप बने हुए इस पुरुष की (सुष्टुतयः) = उत्तम स्तुतियोंवाली (गिरः) = ये वाणियाँ (त्वा)=आपको [प्रभु को] (वाजयन्ति)= गमयन्ति= प्राप्त कराती हैं। सर्वत्र व्यापक होने के नाते तो प्रभु सर्वत्र हैं, परन्तु जीव अपने में दिव्यता को धारण कर, प्रभु का प्रतिरूप-सा बनकर प्रभु के समीप पहुँचता है।

३. प्रभु के समीप पहुँचनेवाले ये (गिर्ववाह:) = अतिशय स्तुतियों को धारण करनेवाले भक्त (अश्वाः न)=घोड़ों की भाँति, शक्तिशालियों के समान [घोड़ा शक्ति का प्रतीक है] (आजिम्)=इस संसार-संग्राम को–हृदय-स्थली पर चलनेवाले देवासुर संग्राम को (जिग्युः) = जीत जाते हैं। यह संसार एक नदी के समान है जो पग-पग पर प्रलोभनों की चट्टानों से भरा पड़ा है, इसे जीतना सुगम नहीं, परन्तु प्रभु का स्तोता प्रभु से शक्ति पाकर इसे पार कर लेता है । वह प्रभु की शक्ति से शक्ति- सम्पन्न होकर इस मन्त्र का ऋषि 'भरद्वाज' [अपने में वाज- शक्ति को भरनेवाला] बनता है।

भावार्थ -

स्तुति के क्रमिक तीन लाभ हैं- १. दिव्यता की प्राप्ति २. प्रभु की समीपता ३. संसार-संग्राम में विजय |

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