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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 682
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
क꣡या꣢ नश्चि꣣त्र꣡ आ भुव꣢꣯दू꣣ती꣢ स꣣दा꣢वृ꣣धः꣢ स꣡खा꣢ । क꣢या꣣ श꣡चि꣢ष्ठया वृ꣣ता꣢ ॥६८२॥
स्वर सहित पद पाठक꣡या꣢꣯ । नः꣣ । चित्रः꣢ । आ । भु꣣वत् । ऊती꣣ । स꣣दा꣡वृ꣢धः । स꣡दा꣢ । वृ꣣धः । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । क꣡या꣢꣯ । श꣡चि꣢꣯ष्ठया । वृ꣣ता꣢ ॥६८२॥
स्वर रहित मन्त्र
कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥६८२॥
स्वर रहित पद पाठ
कया । नः । चित्रः । आ । भुवत् । ऊती । सदावृधः । सदा । वृधः । सखा । स । खा । कया । शचिष्ठया । वृता ॥६८२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 682
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - वामदेव गौतम
पदार्थ -
इस तृच का देवता ‘इन्द्रः' अथवा 'सर्वाः देवताः' है। ‘विश्वेदेवाः' का ही रूपान्तर 'सर्वाः देवता:' है।‘सब दिव्य गुणों की प्राप्ति' यह इस तृच का विषय है। सब देवताओं का राजा 'इन्द्र' है, अत: ‘सर्वाः देवता:' के स्थान में ‘इन्द्र' भी लिख देते हैं । इन सब दिव्य गुणों से अपने जीवन को सुभूषित करनेवाला ‘वामदेव' [सुन्दर दिव्य गुणोंवाला] इस तृच का ऋषि है- यह ऐसा इसलिए बन पाया है कि यह गौतम - गोतम का पुत्र है। ‘गो=इन्द्रयाँ' प्रशस्त इन्द्रियोंवाला है ।
यह वामदेव एक सामान्य भद्र पुरुष की श्रेणी से ऊपर उठकर देवश्रेणी में आया है। ऋणात्मक धर्म [झूठ न बोलना, चोरी न करना, द्वेष न करना, कड़वा न बोलना आदि] के पालन से मनुष्य एक भद्र पुरुष बन जाता है, परन्तु देव बनने के लिए केवल ऋणात्मक धर्म के पालन से काम नहीं चलता। उसके लिए धनात्मक धर्म का पालन आवश्यक होता है । 'जनता के अन्धकार को दूर करना' यह उस धनात्मक धर्म का सामान्यरूप है। इस अन्धकार को दूर करने की प्रक्रिया में खण्डन-मण्डन की आवश्यकता होती है । वह खण्डन कइयों के लिए अप्रिय होता है - और बस, नासमझी के कारण ये उस देवमार्ग पर चलनेवाले के विरोधी हो जाते हैं – कई बार उसकी जान भी लेने के लिए उतावले हो उठते हैं, अतः यह स्पष्ट ही है कि इस देवमार्ग पर चलनेवाले के लिए बड़ा वीर व निर्भीक होना नितान्त आवश्यक है। यह निर्भीकता उसे प्रभु की उपासना से प्राप्त होती है, अत: यह वामदेव कहता है कि (चित्र:) = उत्तम ज्ञान को देनेवाला [चित्-सं+ज्ञान] (सदावृधः) = सदा हमारी वृद्धि का कारण (नः सखा) = वह हमारा मित्र प्रभु (कया ऊती) = अपने आनन्दमय रक्षण से (आ भुवत्) = हमारे चारों ओर वर्त्तमान है और साथ ही (कया) = आनन्दमय (शचिष्ठया) = अत्यन्त शक्तिमय (वृता) = आवर्तन–नियमित दैनिक कार्यक्रम से वह प्रभु हमारी रक्षा कर रहे हैं ।
प्रभु जिसकी भी रक्षा करना चाहते हैं उसे १. उत्तम ज्ञान प्राप्त करा देते हैं और २. उसकी जीवन की चर्या को सूर्य और चन्द्रमा की भाँति नियमित कर देते हैं, जिससे उसे एक विशेष शक्ति प्राप्त होती है। इस शक्ति से सम्पन्न होकर ही तो वह धनात्मक धर्म का पालन कर सकता है।
भावार्थ -
हम ज्ञान की वृद्धि करें और नियमित जीवन से शक्ति का सम्पादन करें ।
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