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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 690
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
र꣣क्षोहा꣢ वि꣣श्व꣡च꣢र्षणिर꣣भि꣢꣫ योनि꣣म꣡यो꣢हते । द्रो꣡णे꣢ स꣣ध꣢स्थ꣣मा꣡स꣢दत् ॥६९०॥
स्वर सहित पद पाठर꣣क्षोहा꣢ । र꣣क्षः । हा꣢ । वि꣣श्व꣡च꣢र्षणिः । वि꣣श्व꣢ । च꣣र्षणिः । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । अ꣡यो꣢꣯हते । अ꣡यः꣢꣯ । ह꣣ते । द्रो꣡णे꣢꣯ । स꣣ध꣡स्थ꣢म् । स꣣ध꣢ । स्थ꣣म् । आ꣢ । अ꣣सदत् ॥६९०॥
स्वर रहित मन्त्र
रक्षोहा विश्वचर्षणिरभि योनिमयोहते । द्रोणे सधस्थमासदत् ॥६९०॥
स्वर रहित पद पाठ
रक्षोहा । रक्षः । हा । विश्वचर्षणिः । विश्व । चर्षणिः । अभि । योनिम् । अयोहते । अयः । हते । द्रोणे । सधस्थम् । सध । स्थम् । आ । असदत् ॥६९०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 690
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - अयोहत द्रोण में
पदार्थ -
सोम का उत्पादन शरीर में होता है । आहार के शरीर में जाने पर रस-रुधिर आदि के क्रम से सातवें स्थान में वीर्य की उत्पत्ति होती है । एवं, यह शरीर ही इस सोम की 'योनि' है— उत्पत्तिस्थान है । इस शरीर को ही यहाँ द्रोण कहा है । यह सोम का पात्र है— रक्षणस्थान है [पा-रक्षणे] । द्रोण एक वृक्ष का नाम है, जिसपर श्वेत पुष्प लगते हैं। शरीर ही वह वृक्ष है और सोम ही उसका श्वेत पुष्प है। इस पुष्प के शरीर में सुरक्षित होने पर यह शरीर पुष्ट होकर वज्रतुल्य दृढ़ हो जाता है— इस समय इसे ‘अयोहत' कहते हैं, मानो लोहे को ही कूट-कूटकर शरीर के रूप में परिणत कर दिया गया हो ।
जब सोम (अभियोनिम्) = शरीर की ही ओर — अपने उत्पत्तिस्थान की ही ओर गतिवाला होता है तब यह सोम (अयोहते द्रोणे आसदत्) = लोहे के समान दृढ़ इस शरीर में स्थित होता है। उस समय यह शरीर (सधस्थम्) = साथ ठहरने का स्थान होता है, अर्थात् तब यह आत्मा इस शरीर में परमात्मा के साथ निवास कर रहा होता है । सुरक्षित वीर्य ही ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर प्रभु का ज्ञान प्राप्त कराता है। सोमरक्षा के लाभों की यही चरमसीमा है ।
यह सोम (‘रक्षो-हा') = रोगकृमियों व राक्षसीवृत्तियों का नाश करनेवाला है। अपने रमण के लिए दूसरों का क्षय करनेवाले रोगकृमि ‘रक्षस्' हैं । यह वीर्य उनको विशेषरूप से कम्पित करके नष्ट कर देता है। राक्षसीवृत्तियों का स्वरूप भी स्व-रमण व पर- क्षय है । सुरक्षित वीर्यवाला पुरुष इन वृत्तियों का कभी शिकार नहीं होता।
यह रक्षोविध्वंस का कार्य वीर्य के द्वारा इस रूप में किया जाता है कि यह वीर्य मनुष्य को क्रियाशील बनाये रखता है । वीर्यवान् पुरुष सदा निर्माणात्मक कार्यों में लगा रहने से अशुभ वासनाओं का शिकार नहीं होता । यही बात यहाँ 'विश्वचर्षणि' शब्द से कही गयी है कि (विश्व) = प्रविष्ट हो गयी है (चर्षणि) = क्रिया जिसमें, ऐसा यह वीर्यवान् पुरुष है । सोम ने इसे विश्वचर्षणि=क्रियाशील बना दिया है ।
भावार्थ -
सोम-रक्षा के द्वारा - १. हम अपने शरीरों को अयोहत- वज्रतुल्य दृढ़ बनाएँ, २. सब इन्द्रियों को क्रियाशील कर लें, ३. अपने मनों से राक्षसीवृत्तियों को दूर करनेवाले होकर, ४. प्रभु के ज्ञान को प्राप्त कर, उसके साथ स्थित होनेवाले बनें ।
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