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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 690
    ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    50

    र꣣क्षोहा꣢ वि꣣श्व꣡च꣢र्षणिर꣣भि꣢꣫ योनि꣣म꣡यो꣢हते । द्रो꣡णे꣢ स꣣ध꣢स्थ꣣मा꣡स꣢दत् ॥६९०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र꣣क्षोहा꣢ । र꣣क्षः । हा꣢ । वि꣣श्व꣡च꣢र्षणिः । वि꣣श्व꣢ । च꣣र्षणिः । अ꣣भि꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । अ꣡यो꣢꣯हते । अ꣡यः꣢꣯ । ह꣣ते । द्रो꣡णे꣢꣯ । स꣣ध꣡स्थ꣢म् । स꣣ध꣢ । स्थ꣣म् । आ꣢ । अ꣣सदत् ॥६९०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रक्षोहा विश्वचर्षणिरभि योनिमयोहते । द्रोणे सधस्थमासदत् ॥६९०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रक्षोहा । रक्षः । हा । विश्वचर्षणिः । विश्व । चर्षणिः । अभि । योनिम् । अयोहते । अयः । हते । द्रोणे । सधस्थम् । सध । स्थम् । आ । असदत् ॥६९०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 690
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (रक्षोहा) काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि राक्षसों का विनाशक, (विश्वचर्षणिः) विश्वरूप परमात्मा का दर्शन करानेवाला ब्रह्मज्ञानरूप सोम (योनिम्) शरीर-स्थिति इत्यादि के कारणभूत, (सधस्थम् अभि) जिसमें सब ज्ञानेन्द्रियों से उपलब्ध ज्ञान एकत्र स्थित होते हैं, उस आत्मा को लक्ष्य करके अर्थात् आत्मा में जाने के लिए (अयोहते) यम-नियम आदि रूप लोहे के हथौड़ों से ताड़ित अर्थात् संस्कृत (द्रोणे) मनरूप द्रोणकलश में (आ असदत्) आकर स्थित होता है ॥२॥

    भावार्थ

    गुरुओं से समित्पाणि शिष्य के प्रति प्रवाहित किया हुआ ब्रह्मज्ञान का रस मन के माध्यम से आत्मा को ही प्राप्त होता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (रक्षोहा) पापवासना का नाशक (विश्वचर्षणिः) सर्वद्रष्टा परमात्मा (अयोहते) हिरण्य ‘अयः-हिरण्यनाम’ [निघं॰ १.२] ज्योति से संहत—आत्मज्योतिसम्प्रेरित (द्रोणे) हृदयकोष्ठ को ‘द्वितीयार्थे सप्तमी’ (सधस्थं योनिम्-अभि-आसदत्) जो आत्मज्योति और सर्वद्रष्टा परमात्मा का समान स्थान गृह है उसे अभिप्राप्त होता है।

    भावार्थ

    सर्वद्रष्टा पापनाशक परमात्मा उपासना द्वारा आत्मा और परमात्मा के समान स्थान आत्मा से सम्प्रेरित हृदयकोष्ठ को सम्यक् प्राप्त होता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    अयोहत द्रोण में

    पदार्थ

    सोम का उत्पादन शरीर में होता है । आहार के शरीर में जाने पर रस-रुधिर आदि के क्रम से सातवें स्थान में वीर्य की उत्पत्ति होती है । एवं, यह शरीर ही इस सोम की 'योनि' है— उत्पत्तिस्थान है । इस शरीर को ही यहाँ द्रोण कहा है । यह सोम का पात्र है— रक्षणस्थान है [पा-रक्षणे] । द्रोण एक वृक्ष का नाम है, जिसपर श्वेत पुष्प लगते हैं। शरीर ही वह वृक्ष है और सोम ही उसका श्वेत पुष्प है। इस पुष्प के शरीर में सुरक्षित होने पर यह शरीर पुष्ट होकर वज्रतुल्य दृढ़ हो जाता है— इस समय इसे ‘अयोहत' कहते हैं, मानो लोहे को ही कूट-कूटकर शरीर के रूप में परिणत कर दिया गया हो ।

    जब सोम (अभियोनिम्) = शरीर की ही ओर — अपने उत्पत्तिस्थान की ही ओर गतिवाला होता है तब यह सोम (अयोहते द्रोणे आसदत्) = लोहे के समान दृढ़ इस शरीर में स्थित होता है। उस समय यह शरीर (सधस्थम्) = साथ ठहरने का स्थान होता है, अर्थात् तब यह आत्मा इस शरीर में परमात्मा के साथ निवास कर रहा होता है । सुरक्षित वीर्य ही ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर प्रभु का ज्ञान प्राप्त कराता है। सोमरक्षा के लाभों की यही चरमसीमा है ।

    यह सोम (‘रक्षो-हा') = रोगकृमियों व राक्षसीवृत्तियों का नाश करनेवाला है। अपने रमण के लिए दूसरों का क्षय करनेवाले रोगकृमि ‘रक्षस्' हैं । यह वीर्य उनको विशेषरूप से कम्पित करके नष्ट कर देता है। राक्षसीवृत्तियों का स्वरूप भी स्व-रमण व पर- क्षय है । सुरक्षित वीर्यवाला पुरुष इन वृत्तियों का कभी शिकार नहीं होता।

    यह रक्षोविध्वंस का कार्य वीर्य के द्वारा इस रूप में किया जाता है कि यह वीर्य मनुष्य को क्रियाशील बनाये रखता है । वीर्यवान् पुरुष सदा निर्माणात्मक कार्यों में लगा रहने से अशुभ वासनाओं का शिकार नहीं होता । यही बात यहाँ 'विश्वचर्षणि' शब्द से कही गयी है कि (विश्व) = प्रविष्ट हो गयी है (चर्षणि) = क्रिया जिसमें, ऐसा यह वीर्यवान् पुरुष है । सोम ने इसे विश्वचर्षणि=क्रियाशील बना दिया है ।

    भावार्थ

    सोम-रक्षा के द्वारा - १. हम अपने शरीरों को अयोहत- वज्रतुल्य दृढ़ बनाएँ, २. सब इन्द्रियों को क्रियाशील कर लें, ३. अपने मनों से राक्षसीवृत्तियों को दूर करनेवाले होकर, ४. प्रभु के ज्ञान को प्राप्त कर, उसके साथ स्थित होनेवाले बनें ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (२) ( रक्षोहा ) = राक्षसों, दुष्ट पुरुषों का नाशक ( विश्वचर्षणिः ) = संसार का द्रष्टा, प्रभु ( अयोहते द्रोणे ) = लोह के बने कुंडे में जलराशि के समान ( अयोहते ) = गतिदायक शक्ति से गतिमान् ( द्रोणे ) = जगत् में व्यापक होकर ( सधस्थं ) = साथ ही स्थिर रहने वाले स्वाभाविक ( योनिं ) = इस अन्तरिक्ष को ( अभि आसदत् ) = सर्वत्र व्याप्त किये हुए हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - पुष्कुल: अग्नि: । देवता - सोम:। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (रक्षोहा) रक्षसां कामक्रोधलोभमोहादीनां हन्ता, (विश्वचर्षणिः) विश्वात्मकस्य परमात्मनो दर्शयिता ब्रह्मज्ञानरसरूपः सोमः (योनिम्) शरीरस्थित्यादिकारणभूतम्, (सधस्थम्) सह तिष्ठन्ति सर्वैः ज्ञानेन्द्रियैरुपलब्धानि ज्ञानानि अत्र इति सधस्थः आत्मा तम् (अभि) अभिलक्ष्य, तं प्राप्तुमित्यर्थः (अयोहते) यमनियमादिरूपैः अयोभिः हते ताडिते, संस्कृते इति यावत् (द्रोणे) मनोरूपे द्रोणकलशे (आ असदत्) आसन्नो भवति ॥२॥२

    भावार्थः

    गुरुभिः समित्पाणिं शिष्यं प्रति प्रवाहितो ब्रह्मज्ञानरसो मनोमाध्यमेनात्मानमेव प्राप्नोति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१।२, य० २६।२६, यजुषि ‘योनि॒मपो॑हते’ इति पाठः। २. दयानन्दर्षिणा यजुर्भाष्येऽयमपि मन्त्रो विद्वत्पक्षे व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, the Queller of the ignoble, the Seer of the universe, active through His motive force, pervading the world, engulfs this firm atmosphere.

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    Meaning

    You are the destroyer of negativity, destructivity and evil and darkness, you are universal watcher and guardian of all that is, you are centre of the origin and end of existence, veiled in impenetrable womb of gold, you are ever on the move yet settled and constant in the house of life. (Soma is Divinity Itself. ) (Rg. 9-1-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (रक्षोहा) પાપ વાસનાના નાશક (विश्वचर्षणिः) સર્વદ્રષ્ટા પરમાત્મા (अयोहते) હિરણ્ય જ્યોતિથી સંહત આત્મજ્યોતિ સંપ્રેરિત (द्रोणे) હૃદય કોષ્ઠમાં (सधस्थं योनिम् अभि आसदत्) જે આત્મજ્યોતિ અને સર્વદ્રષ્ટા પરમાત્માનું સમાન સ્થાન ગૃહ છે ત્યાં સારી રીતે પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સર્વ દ્રષ્ટા, પાપનાશક પરમાત્મા ઉપાસના દ્વારા આત્મા અને પરમાત્માનું સમાન સ્થાન, આત્માથી સારી રીતે પ્રેરિત હૃદયકોષ્ઠમાં સમ્યક્ પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    गुरूकडून समित्पाणि (समिधा हातात घेतलेल्या) शिष्याकडे प्रवाहित केलेला ब्रह्मज्ञान रस, मनाच्या माध्यमाने आत्म्यालाच प्राप्त होतो. ॥२॥

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    विषय

    पुढच्या मंत्रात तोच विषय वर्णित आहे -

    शब्दार्थ

    (रक्षोहा) काम, क्रोध, लोभ, मोह आदी राक्षसांचा विनाश करणारा (विश्वर्चाणि:) विश्वरूप परमात्म्याचे दर्शन घडविणारा ब्रह्मज्ञानरूप सोमरस (योनिम्) शरीराच्या स्थितीचे कारणभूत आत्म्यात एकत्रित होतो (सधस्थम् अभि) ज्या आत्म्यात सर्व ज्ञानेन्द्रियांकडून उपलब्ध ज्ञान स्थित होते, त्या आत्म्याकडे जाण्यासाठी (द्रोणे) प्रथम मनरूप द्रोणकलशात ज्ञान एकत्रित होते. ते मनरूप द्रोण (अयोहते) यम नियम आदी लौहाच्या हातोड्यांनी मारून मारून घट्ट केलेले असते. त्या दृढ मनरूप द्रोणात ज्ञानरस (असद्) येऊन स्थिर होते. (म्हणजे ब्रह्मज्ञान गुरूकडून शिष्याच्या मनाकडे आणि शिष्याच्या मनाकडून आत्म्याकडे जाते ।।२।।

    भावार्थ

    गुरूकडून श्रद्धावान शिष्याकडे प्रवाहित होणारे ब्रह्मज्ञानरूप रस मनाच्या माध्यमातून आत्म्याकडेच पोहचतो. ।।२।।

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