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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 689
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
18
स्वा꣡दि꣢ष्ठया꣣ म꣡दि꣢ष्ठया꣣ प꣡व꣢स्व सोम꣣ धा꣡र꣢या । इ꣡न्द्रा꣢य꣣ पा꣡त꣢वे सु꣣तः꣢ ॥६८९॥
स्वर सहित पद पाठस्वा꣡दि꣢꣯ष्ठया । म꣡दिष्ठ꣢꣯या । प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । धा꣡र꣢꣯या । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पा꣡त꣢꣯वे । सु꣣तः꣢ ॥६८९॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया । इन्द्राय पातवे सुतः ॥६८९॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वादिष्ठया । मदिष्ठया । पवस्व । सोम । धारया । इन्द्राय । पातवे । सुतः ॥६८९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 689
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ४६८ क्रमाङ्क पर परमेश्वर से प्राप्त होनेवाले आनन्दरस के विषय में व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ आचार्य से प्राप्त होनेवाले ब्रह्मज्ञानरस के विषय में व्याख्या करते हैं।
पदार्थ
हे (सोम) ब्रह्मज्ञानरस ! तू (स्वादिष्ठया) अत्यन्त स्वादु, (मदिष्ठया) अतिशय हर्षप्रदायक (धारया) धारा से (पवस्व) हमें पवित्र कर। तू (इन्द्राय) मेरे आत्मा के (पातवे) पान करने के लिए (सुतः) आचार्य द्वारा प्रेरित किया गया है ॥१॥
भावार्थ
शिष्य को चाहिए कि आचार्य से वह जो भौतिक विज्ञान या ब्रह्मविज्ञान प्राप्त करता है, उसे अपने आत्मा में स्थिर रूप से धारण कर ले ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या पू॰ पृ॰ ३८७)
विशेष
ऋषिः—मधुच्छन्दाः (मीठी इच्छा वाला)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में प्राप्त होने वाला परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
मधुच्छन्दाः वैश्वामित्र:
पदार्थ
इस तृच का देवता ‘सोम' है।‘सोम' शब्द का अर्थ वीर्य है । इस सोम के पान= शरीर में ही व्याप्त करने से मनुष्य जीवन मधुर इच्छाओं से परिपूर्ण होता है और वह 'मधुच्छन्दाः' कहलाने लगता है [मधु-मधुर, छन्दस् = इच्छा] । इसके मन में किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं होता। यह सभी के प्रति स्नेह की वृत्तिवाला होने के कारण ‘वैश्वामित्र' नामवाला होता है । मन्त्र में कहते हैं कि हे (सोम) = तू (धारया) = अपनी धारक शक्ति से (पवस्व) = हमें पवित्र बना दे | तेरी वह धारा (स्वादिष्ठया) = अत्यन्त मधुर । हे सोम ! तेरी वह धारा (मदिष्ठया) = उच्चतम मद, हर्ष व आनन्द देनेवाली हो । वीर्यवान् पुरुष का मानस सदा आनन्दमय होता है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है । यही मानस आनन्द इसके चेहरे पर मुस्कराहट के रूप में अभिव्यक्त होता है ।
हे सोम! (सुतः) = उत्पादित हुआ हुआ तू (इन्द्राय पातवे) = इन्द्र की रक्षा के लिए हो । तू आसुर वृत्तियों के आक्रमण से हमारी रक्षा कर । निर्वीर्य पुरुष ही क्रोध, ईर्ष्या आदि आसुर वृत्तियों का शिकार हुआ करता है। अगले मन्त्र में यही भावना 'रक्षो-हा' शब्द से कही जाएगी।
भावार्थ
हम संयम द्वारा सोमपान करते हुए अपने जीवनों को मधुर व आनन्दमय बनाएँ और अपने को आसुर वृत्तियों से बचाएँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( १ ) व्याख्या देखो अविकल संख्या [ ४६८ ] पृ० २३६ ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - पुष्कुल: अग्नि: । देवता - सोम:। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४६८ क्रमाङ्के परमेश्वरात् प्राप्तव्यस्यानन्दरसस्य विषये व्याख्याता। अत्र आचार्यात् प्राप्तव्यस्य ब्रह्मज्ञानरसस्य विषयो वर्ण्यते।
पदार्थः
हे (सोम) ब्रह्मज्ञानरस ! त्वम् (स्वादिष्ठया) स्वादुतमया, (मदिष्ठया) अतिशयेन हर्षप्रदया (धारया) प्रवाहसन्तत्या (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। [पूङ् पवने, भ्वादिः।] त्वम् (इन्द्राय) मदीयात्मने (पातवे) पातुम् (सुतः) आचार्यद्वारा प्रेरितोऽसि ॥१॥२
भावार्थः
आचार्याच्छिष्येण यद् भौतिकविज्ञानं ब्रह्मविज्ञानं वा प्राप्यते तत् स्वात्मनि स्थिरत्वेन धारणीयम् ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१।१, य० २६।२५, साम० ४६८। २. दयानन्दर्षिणा यजुर्भाष्ये मन्त्रोऽयं विद्वत्पक्षे व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Soma, flow in an extremely sweet and pleasant shower. Thou hast been extracted for the King !
Meaning
O Soma, Spirit of Divinity, peace and glory of existence distilled in the essence for the souls being, flow in the sweetest and most exhilarating streams of ecstasy, cleanse and sanctify us unto purity and constancy, and initiate us into the state of ananda, divine glory. (Rg. 9-1-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (सुतः) ધ્યાન દ્વારા નિષ્પન્ન કરેલ-ધ્યાન કરેલ (स्वादिष्ठया) અત્યંત સ્વાદવાળી, (मदिष्ठया) અત્યંત હર્ષ આપનારી, (धारया) ધારણાથી (पवस्व) પ્રાપ્ત થાય છે. (इन्द्राय पातवे) ઉપાસક આત્માના પાન-આનંદ ધારણ કરવા માટે,
भावार्थ
ભાવાર્થ : ઉપાસકનું પાન-અંદર ધારણ કરવા માટે ધ્યાન દ્વારા નિષ્પન્ન અથવા ધ્યાન કરેલ પરમાત્મા અત્યંત સ્વાદવાળી, અત્યંત આનંદવાળી ધારણાથી પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
मराठी (2)
भावार्थ
शिष्य आचार्याकडून जे भौतिक विज्ञान किंवा ब्रह्मविद्वान प्राप्त करतो ते त्याने आपल्या आत्म्यामध्ये स्थिर रूपाने धारण करावे ॥१॥
विषय
प्रथम ऋचेची व्याख्या पूर्वार्चिक भागात क्र. ४६८ वर केली आहे. तेथे या ऋचेचा अर्थ परमेश्वरापासून प्राप्त होणाऱ्या आनंदरसाविषयी केला आहे. येथे आचार्यांकडून प्राप्त होणाऱ्या ब्रह्मज्ञानरसाविषयी वर्णन केले आहे.
शब्दार्थ
हे (सोम) ब्रह्मज्ञानरस, तू (स्वादिष्ठ्या) अत्यंत स्वादु आणि (मदिष्ठ्या) अतिशय हर्षदायक (धारया) अशश धारेने (पवस्व) आम्हाला पवित्र कर. तू (इन्द्राय) माझ्या आत्म्यासाठी (पातवे) त्याला तृप्त करण्यासाठी (सुत:) आचार्याद्वारे प्रेरित वा प्रेषित आहेस (आचार्याने मला जे ब्रह्मज्ञान दिले, ते मी अधिकाधिक पवित्र होण्यासाठी आहे.) ।।१।।
भावार्थ
शिष्याचे कर्तव्य आहे की तो आचार्याकडून जे भौतिक विज्ञान अथवा ब्रह्मविज्ञान प्राप्त करतो, त्या ज्ञानाला त्या शिष्याने आपल्या आत्म्यात स्थायी रूपाने ठेवावे ते विसरू नये ।।१।।
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