Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 700
ऋषिः - कविर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
3
अ꣣भि꣢ प्रि꣣या꣡णि꣢ पवते꣣ च꣡नो꣢हितो꣣ ना꣡मा꣢नि य꣣ह्वो꣢꣫ अधि꣣ ये꣢षु꣣ व꣡र्ध꣢ते । आ꣡ सूर्य꣢꣯स्य बृह꣣तो꣢ बृ꣣ह꣢꣫न्नधि꣣ र꣢थं꣣ वि꣡ष्व꣢ञ्चमरुहद्विचक्ष꣣णः꣢ ॥७००॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । प्रि꣣या꣡णि꣢ । प꣣वते । च꣡नो꣢꣯हितः । च꣡नः꣢꣯ । हि꣣तः । ना꣡मा꣢नि । य꣣ह्वः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । ये꣡षु꣢꣯ । व꣡र्धते꣢꣯ । आ । सू꣡र्य꣢꣯स्य । बृ꣣ह꣢तः । बृ꣣ह꣢न् । अ꣡धि꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯म् । वि꣡ष्व꣢꣯ञ्चम् । वि । स्व꣣ञ्चम् । अरुहत् । विचक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ ॥७००॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्रियाणि पवते चनोहितो नामानि यह्वो अधि येषु वर्धते । आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्नधि रथं विष्वञ्चमरुहद्विचक्षणः ॥७००॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । प्रियाणि । पवते । चनोहितः । चनः । हितः । नामानि । यह्वः । अधि । येषु । वर्धते । आ । सूर्यस्य । बृहतः । बृहन् । अधि । रथम् । विष्वञ्चम् । वि । स्वञ्चम् । अरुहत् । विचक्षणः । वि । चक्षणः ॥७००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 700
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
Acknowledgment
विषय - प्रकृति में रहता हुआ भी
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि ‘कवि भार्गव' है । कवि का अर्थ है 'क्रान्तदर्शी' - तत्त्व तक पहुँचनेवाली दृष्टिवाला—न कि उथली दृष्टिवाला । भार्गव होने से यह ऐसा बन सका है। भार्गव का अभिप्राय है 'भृगु का अपत्य', अर्थात् अतिशयेन भृगु - अपने को तपस्या की भट्ठी में पकानेवाला। यह आचार्य के समीप (‘तपोऽतिष्ठत् तप्यमानः समुद्रे') = खूब तप करता है, इसी से बुद्धि का ठीक परिपाक करके (‘कवि')=क्रान्तदर्शी बनता है । यह कवि (चनोहितः) = अन्न में स्थित होता हुआ भी उन प्राकृतिक भोगों में लिप्त नहीं होता। जल में कमल की भाँति यह कवि प्राकृतिक भोगों में स्थित होता हुआ भी (प्रियाणि नामानि) = प्रभु के सुन्दर नामों को (अभिपवते) = बारीकी से विचारता है [अभि=On, पवते=To think out, Discern], (येषु) = उन नामों को जिनसे (यह्वः) = वह महान् अथवा सबसे जाने योग्य और पुकारने योग्य प्रभु [यातश्च हूतश्च] (अधिवर्धते) = बढ़ता है, अर्थात् जिन नामों से प्रभु की महिमा प्रकट हो रही है । वस्तुतः यह 'भार्गव कवि' इन सब प्राकृतिक पदार्थों में भी प्रभु की महिमा को ही देखता है और इसी प्रभु-स्मरण के कारण उनका ठीक उपयोग करता हुआ उनमें आसक्त नहीं होता, उनमें रहता हुआ भी उनका नहीं हो जाता ।
‘भार्गव कवि' (सूर्यस्य) = प्रकाश की देवता के, अर्थात् ज्ञान के (बृहतः) = बृहन्- विशाल-से- विशाल अतिविस्तृत (रथं अधि अरुहत्) = रथ पर सवार होता है, अर्थात् विस्तृत ज्ञान को प्राप्त करता है । उसका यह ज्ञान-रथ (विश्वञ्चम्) = [वि+सु+अञ्ञ्] - विविध दिशाओं में उत्तम गति से जानेवाला है, अर्थात् सभी विषयों के व्यापक ज्ञान को प्राप्त करके यह 'विचक्षणः'–विशेष दृष्टिवाला बनता है।
भावार्थ -
इस संसार में रहते हुए भी हम सब प्राकृतिक पदार्थों में प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न करें, प्रभु के प्रिय नामों का स्मरण करते हुए, व्यापक ज्ञान को प्राप्त कर ‘विचक्षण' बनें और इस मन्त्र के ऋषि 'कवि' हों ।
इस भाष्य को एडिट करें