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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 702
ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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अ꣡व꣢ द्युता꣣नः꣢ क꣣ल꣡शा꣢ꣳ अचिक्रद꣣न्नृ꣡भि꣢र्येमा꣣णः꣢꣫ कोश꣣ आ꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡ये꣢ । अ꣣भी꣢ ऋ꣣त꣡स्य꣢ दो꣣ह꣡ना꣢ अनूष꣣ता꣡धि꣢ त्रिपृ꣣ष्ठ꣢ उ꣣ष꣢सो꣣ वि꣡ रा꣢जसि ॥७०२॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡व꣢꣯ । द्यु꣣तानः꣢ । क꣣ल꣡शा꣢न् । अ꣣चिक्रदत् । नृ꣡भिः꣢꣯ । ये꣣मानः꣢ । को꣡शे꣢꣯ । आ । हि꣣रण्य꣡ये꣢ । अ꣡भि꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । दो꣣ह꣡नाः꣢ । अ꣣नूषत । अ꣡धि꣢꣯ । त्रि꣣पृष्ठः꣢ । त्रि꣣ । पृष्ठः꣢ । उ꣣ष꣡सः꣢ । वि । रा꣣जसि ॥७०२॥


स्वर रहित मन्त्र

अव द्युतानः कलशाꣳ अचिक्रदन्नृभिर्येमाणः कोश आ हिरण्यये । अभी ऋतस्य दोहना अनूषताधि त्रिपृष्ठ उषसो वि राजसि ॥७०२॥


स्वर रहित पद पाठ

अव । द्युतानः । कलशान् । अचिक्रदत् । नृभिः । येमानः । कोशे । आ । हिरण्यये । अभि । ऋतस्य । दोहनाः । अनूषत । अधि । त्रिपृष्ठः । त्रि । पृष्ठः । उषसः । वि । राजसि ॥७०२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 702
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

यह कवि (द्युतानः) = अपने ज्ञान को विस्तृत करता हुआ [द्यु+तन्- विस्तार] (कलशान्) = सोलह कलाओं के आधारभूत [कला+शी] शरीरों को (अव अचिक्रदत्) = नीचे [दूर] पुकार देता है, अर्थात् वह स्पष्ट कह देता है कि सब कलाओं का आधार होता हुआ भी यह स्थूलशरीर मेरा मुख्य ध्येय नहीं बन सकता। यह सुन्दर है, आवश्यक है; परन्तु मुझे अपनी सारी शक्ति इसी की उन्नति में नहीं लगा देनी। मुझे आगे बढ़ना है, आगे बढ़कर 'नर' [नृ=नये] बनना है।

यह कवि अपनी शक्ति [सोम] को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि हे पवमान सोम ! (नृभिः येमाणः) = आगे बढ़ने की वृत्तिवाले लोगों से संयत किया जाता हुआ तू (हिरण्यये कोशे) = ज्योतिर्मय- विज्ञानमयकोश में (आ विराजसि) = शोभायमान होता है, अर्थात् यह कवि सदा विज्ञानमयकोश को उन्नत करने का प्रयत्न करता हुआ, 'नित्य सत्त्वस्थ' होता हुआ, अपने जीवन में चमकता है।

वस्तुत: ये (ऋतस्य दोहना:) = [दुह् से कर्त्ता में ल्युट्] सत्य ज्ञान के दोहन करनेवाले लोग ही (अभि अनूषत) = उस प्रभु की सर्वतः स्तुति करते हैं । ज्ञान की प्राप्ति ही उस प्रभु की सच्ची उपसना है। वह प्रभु ज्ञानधन हैं, विशुद्धाचित् - Pure knowledge हैं, अतः ज्ञान का दोहन ही तो प्रभु की सच्ची उपासना है ।

इस प्रकार ज्ञान का दोहन करता हुआ यह कवि (उषसः) = अज्ञान दहन के [उष् दाहे] त्(रिपृष्ठे अधि) = तीसरी भूमिका के ऊपर (विराजसि) = शोभायमान होता है । यह कवि की आत्मप्रेरणा है कि इस मार्ग पर चलते हुए ही तुझे प्रकृति, आत्मा तथा परमात्मा-सम्बन्धी अज्ञान को समाप्त कर - तीनों मञ्जिलों से ऊपर उठकर ज्ञान के प्रकाश में चमकना है । 

भावार्थ -

स्थूलशरीर से ही चिपटे न रहकर हम विज्ञानमयकोश में स्थित हों, तीनों प्रकार के अज्ञानों को दूर कर ज्ञान के प्रकाश में स्थित हों ।

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