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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 707
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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न꣡ हि ते꣢꣯ पू꣣र्त꣡म꣢क्षि꣣प꣡द्भुव꣢꣯न्नेमानां पते । अ꣢था꣣ दु꣡वो꣢ वनवसे ॥७०७॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣢ । हि । ते꣣ । पूर्त꣢म् । अ꣣क्षिप꣢त् । अ꣣क्षि । प꣢त् । भु꣡व꣢꣯त् । ने꣣मानाम् । पते । अ꣡थ꣢꣯ । दु꣡वः꣢꣯ । व꣣नवसे ॥७०७॥


स्वर रहित मन्त्र

न हि ते पूर्तमक्षिपद्भुवन्नेमानां पते । अथा दुवो वनवसे ॥७०७॥


स्वर रहित पद पाठ

न । हि । ते । पूर्तम् । अक्षिपत् । अक्षि । पत् । भुवत् । नेमानाम् । पते । अथ । दुवः । वनवसे ॥७०७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 707
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

गत मन्त्र से यह स्पष्ट है कि जीव को अपनी भावना के अनुसार ही योनि प्राप्त होती है, प्रभु वहाँ भी उसे उत्कृष्ट बल व योग्यता प्राप्त कराते हैं। अधूरापन तो जीव के अन्दर स्वयं है, उसी न्यूनता के कारण वह परमपुरुषार्थ को सिद्ध करने में बारम्बार असफल होता है। जीव का नाम ही ‘नेम'= [अधूरा] हो गया है। प्रभु सदा इन जीवों की रक्षा, पालन व पूरण में लगे हैं, अतः मन्त्र में कहते हैं कि हे (नेमानां पते) = अपूर्ण, अल्पज्ञ जीवों के रक्षक प्रभो ! (ते पूर्तम्) = आपका पालन व पूरण करने का काम (नहि अक्षिपत्) = दूर नहीं फेंका जाता, वह तो सदा चलता ही है। (अथ) = और (दुवः) = मनुष्यों से की गई प्रार्थनाओं को आप (वनवसे) = आदृत करते हो, अर्थात् पूर्ण करते हो । 'दुव:' शब्द का अर्थ Wealth=सम्पत्ति भी है, अतः यह भी अर्थ कर सकते हैं कि हे प्रभो! आप अपना पालन का कार्य करते हुए इन अल्पज्ञ, अधूरे जीवों को उचित सम्पत्ति प्राप्त कराते हो ।

कमी जीव की है। अपनी इस अल्पज्ञता के कारण जीव भटककर कष्ट भी उठाता है । प्रभु तो उसकी प्रार्थनाओं को सुनते हुए उसे उचित धन प्राप्त कराते ही हैं और इस प्रकार उसके पालन के लिए सतत प्रयत्नशील हैं ।

भावार्थ -

जीव नेम अपूर्ण है, उसे प्रभु साहाय्य से पूर्णता की ओर चलना है।

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