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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 714
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
पु꣣रुहूतं꣡ पु꣢रुष्टु꣣तं꣡ गा꣢था꣣न्या꣡३꣱ꣳस꣡न꣢श्रुतम् । इ꣢न्द्र꣣ इ꣡ति꣢ ब्रवीतन ॥७१४॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣣म् । पु꣣रुष्टुत꣢म् । पु꣣रु । स्तुत꣢म् । गा꣣थान्य꣢꣯म् । स꣡न꣢꣯श्रुतम् । स꣡न꣢꣯ । श्रु꣣तम् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । इ꣡ति꣢꣯ । ब्र꣣वीतन । ब्रवीत । न ॥७१४॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरुहूतं पुरुष्टुतं गाथान्या३ꣳसनश्रुतम् । इन्द्र इति ब्रवीतन ॥७१४॥
स्वर रहित पद पाठ
पुरुहूतम् । पुरु । हूतम् । पुरुष्टुतम् । पुरु । स्तुतम् । गाथान्यम् । सनश्रुतम् । सन । श्रुतम् । इन्द्रः । इति । ब्रवीतन । ब्रवीत । न ॥७१४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 714
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - इन्द्र
पदार्थ -
प्रभु-स्तवन करता हुआ श्रुतकक्ष कहता है कि (पुरुहूतम्) = बहुतों से पुकारे गये उस प्रभु को (इन्द्रः इति ब्रवीतन) = इन्द्र इस नाम से स्मरण करो । सन्त लोग सदा उस प्रभु का स्मरण करते हैं, दूसरे भी कष्ट में उसे ही पुकारते हैं। अन्य सब आधारों की असारता अनुभव होने पर किसने उस प्रभु को याद नहीं किया। (पुरुष्टुतम्) = वे प्रभु ही सदा खूब स्तुत होते हैं। सज्जनों से सुख में और सामान्य लोगों से दु:ख में उस प्रभु को याद किया जाता है । (गाथान्यम्) = वस्तुतः हमें उस प्रभु की ही गुणगाथा गानी चाहिए–वे प्रभु ही गायन के योग्य हैं, क्योंकि वे (सनश्रुतम्) = [सन्=संविभाग] इस संसार में उचित संविभाग के कारण प्रसिद्ध हैं। प्रभु के सभी कार्य सन्तुलित व न्याय्य हैं । अन्धे पुरुष के आँखें नहीं होती तो उसे स्मृतिशक्ति व मनः प्रसाद अधिक मात्रा में दिया गया है ।
जिस प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में पुरुहूत आदि गुणों के कारण प्रभु 'इन्द्र' हैं, उसी प्रकार आधिभौतिक क्षेत्र में राजा इन्द्र है। राजा को भी (पुरुहूतम्) = बहुतों से पुकारा गया (पुरुष्टुतम्) = खूब स्तुति किया गया, (गाथान्याम्) = गाई गई कीर्तिगाथाओंवाला तथा (सनश्रुतम्) = प्रजा में धनों का उचित संविभाग करनेवाला होना चाहिए ।
इस शरीर में हमें [जीवात्मा को] भी अपने को पुरुहूत आदि गुणों से विशिष्ट बनाने के लिए प्रयत्नशील होना अनिवार्य है। यदि हम स्वार्थ में ही न रमकर कुछ परार्थ की वृत्तिवाले होंगे तो पुरुहूत व पुरुष्टुत तो होंगे ही, हमारे न चाहते हुए भी हमारी कीर्तिगाथाएँ गाई जाएँगी और हम अपने धनादि के संविभाग के कारण प्रसिद्धि पाएँगे । जब जीव इस मार्ग पर चलता है, तभी वह अपने सोम की भी रक्षा कर पाता है, इसलिए इन उल्लिखित शब्दों में प्रभु का स्मरण करते हुए अपने जीवन का ध्येय भी 'सत्य इन्द्र' बनने का रखना चाहिए ।
भावार्थ -
प्रभु का इन्द्र नाम से स्मरण करते हुए हम भी इन्द्र बनने के लिए प्रयत्नशील हों ।