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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 715
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
इ꣢न्द्र꣣ इ꣡न्नो꣢ म꣣हो꣡नां꣢ दा꣣ता꣡ वाजा꣢꣯नां नृ꣣तुः꣢ । म꣣हा꣡ꣳ अ꣢भि꣣ज्ञ्वा꣡ य꣢मत् ॥७१५॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रः꣢꣯ । इत् । नः꣣ । महो꣡ना꣢म् । दा꣣ता꣢ । वा꣡जा꣢꣯नाम् । नृ꣣तुः꣢ । म꣣हा꣢न् । अ꣣भि꣢ज्ञु । अ꣣भि । ज्ञु꣢ । आ । य꣣मत् ॥७१५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र इन्नो महोनां दाता वाजानां नृतुः । महाꣳ अभिज्ञ्वा यमत् ॥७१५॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रः । इत् । नः । महोनाम् । दाता । वाजानाम् । नृतुः । महान् । अभिज्ञु । अभि । ज्ञु । आ । यमत् ॥७१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 715
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - कर्म स्वातन्त्र्य, फल पारतन्त्र्य
पदार्थ -
(इन्द्रः इत्) = वह शक्र ही (नः) = हमें (महोनाम्) = महनीय व तेजस्वी (वाजानाम्) = शक्तियों का (दाता) = देनेवाला है। प्रभु स्वयं सब शक्तिशाली कर्मों के करनेवाले हैं। वे सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलयरूप महान् कर्म करनेवाले हैं। इन कर्मों का विचार उस प्रभु की अचिन्त्य शक्ति का कुछ आभास देता है। उस प्रभु ने अपनी शक्ति के अंश से जीव को भी शक्ति सम्पन्न बनाया है और शक्ति देकर हमें (नृतु:) = इस संसार के नाटक में अपना पार्ट अदा करने की योग्यता व क्षमता प्राप्त करायी है। उस शक्ति को प्राप्त करके मनुष्य नाना प्रकार के कर्मरूप नृत्यों को किया करता है । इस नृत्य करने में हमें उस प्रभु ने स्वतन्त्रता दी है । वस्तुतः क्षमता का विकास स्वतन्त्रता में ही सम्भव है। परतन्त्रता में परसंचालित होने से यदि ग़लती की कम सम्भावना है तो विकास तो असम्भव ही है, अतः प्रभु ने शक्ति प्राप्त कराके हमें नृत्य कर्म का स्वातन्त्र्य दिया है। चाहे जैसा नाच हम नाचें, प्रभु हमें रोकते नहीं । समय-समय पर उचित प्रेरणा वे अवश्य प्राप्त कराते हैं । वे क्रुद्ध नहीं होतेवे (महान्) = उदार हैं, परन्तु जब हम इस प्रेरणा को निरन्तर अनसुना करके ग़लत ही नृत्य करने के आग्रही हो जाते हैं, तब वे प्रभु अभिज्ञ आयमत्- इस प्रकार हमारा नियमन करते हैं कि जीव को घुटने टेकने ही पड़ते हैं [अभिगते जानुनी यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात् तथा=अभिज्ञु]। जीव कर्म करने में नि:सन्देह स्वतन्त्र हैं, परन्तु फल भोगने में परतन्त्र ही हैं । इस सिद्धान्त को समझता हुआ श्रुतकक्ष कभी भी इस कर्म-स्वतन्त्रता का अनुचित लाभ नहीं उठाता । ज्ञान की शरण में जानेवाला कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में कर्म-स्वातन्त्र्य का उचित लाभ ही उठाने का प्रयत्न करेगा।
भावार्थ -
प्रभु की दी शक्ति से ही हम कर्म कर पाते हैं, अतः हम उस शक्ति का सदुपयोग ही करें, ग़लत प्रयोग करके हमें दण्डभागी न होना पड़े।
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