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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 719
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
व꣣य꣡मु꣢ त्वा त꣣दि꣡द꣢र्था꣣ इ꣡न्द्र꣢ त्वा꣣य꣢न्तः꣣ स꣡खा꣢यः । क꣡ण्वा꣢ उ꣣क्थे꣡भि꣢र्जरन्ते ॥७१९॥
स्वर सहित पद पाठव꣣य꣢म् । उ꣣ । त्वा । तदि꣡द꣢र्थाः । त꣣दि꣢त् । अर्थाः । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वा꣣य꣡न्तः꣢ । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । क꣡ण्वाः꣢꣯ । उ꣣क्थे꣡भिः꣢ । ज꣣रन्ते ॥७१९॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमु त्वा तदिदर्था इन्द्र त्वायन्तः सखायः । कण्वा उक्थेभिर्जरन्ते ॥७१९॥
स्वर रहित पद पाठ
वयम् । उ । त्वा । तदिदर्थाः । तदित् । अर्थाः । इन्द्र । त्वायन्तः । सखायः । स । खायः । कण्वाः । उक्थेभिः । जरन्ते ॥७१९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 719
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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विषय - 'मेध्यातिथि प्रियमेध' की उपासना
पदार्थ -
इस मन्त्र के ऋषि मेध्यातिथि व प्रियमेध हैं । (मेध्यः) = पवित्र प्रभु ही है अतिथि जिसका, वह ‘मेध्यातिथि' है । (तदिदर्थाः) = वह प्रभु ही उसका एकमात्र प्रयोजन होता है। (त्वायन्तः) = वह उस प्रभु की ही ओर चलता है, उसी का सखा बनता है । वह स्पष्ट कहता है कि (वयम्) = हम (त्वा) = तुझे ही चाहते हैं। वस्तुत: जिन्हें मेधा प्रिय है, वे (कण्वाः) = मेधावी पुरुष (उक्थेभिः) = स्तोत्रों से प्रभु की ही तो (जरन्ते) = स्तुति करेंगे । अन्य सांसारिक वस्तुएँ अन्यत्र मिल भी जाएँ, परन्तु मेधा तो प्रभु की उपासना से ही प्राप्त होगी, अतः यह ज्ञानी प्रभु का ही भक्त बनता है ।
भावार्थ -
मेधावी तेरी ही कामना करते हैं ।
टिप्पणी -
इस मन्त्र का व्याख्यान मन्त्र संख्या १५७ पर हो चुका है, अतः यहाँ संक्षेप से ही दिया है ।