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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 720
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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न꣡ घे꣢म꣣न्य꣡दा प꣢꣯पन꣣ व꣡ज्रि꣢न्न꣣प꣢सो꣣ न꣡वि꣢ष्टौ । त꣢꣯वेदु꣣ स्तो꣡मै꣢श्चिकेत ॥७२०॥

स्वर सहित पद पाठ

न꣢ । घ꣣ । ईम् । अन्य꣢त् । अ꣣न् । य꣢त् । आ । प꣣पन । व꣡ज्रि꣢꣯न् । अ꣣प꣡सः꣢ । न꣡वि꣢꣯ष्टौ । त꣡व꣢꣯ । इत् । उ꣣ । स्तो꣡मैः꣢꣯ । चि꣣केत ॥७२०॥


स्वर रहित मन्त्र

न घेमन्यदा पपन वज्रिन्नपसो नविष्टौ । तवेदु स्तोमैश्चिकेत ॥७२०॥


स्वर रहित पद पाठ

न । घ । ईम् । अन्यत् । अन् । यत् । आ । पपन । वज्रिन् । अपसः । नविष्टौ । तव । इत् । उ । स्तोमैः । चिकेत ॥७२०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 720
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(वज्रिन्) = वज्रहस्त, नियन्ता प्रभो ! प्रियमेध (आपपन घ ईम्) = निश्चय से (अन्यत्) = किसी और की = स्तुति नहीं करता है (अपस:) = कर्म के (नविष्टौ) = प्रारम्भ में (तव इत् उ) = सचमुच तेरा ही (स्तोमैः) = स्तोत्रों से (चिकेत) = ज्ञान प्राप्त करता है। प्रियमेध ऋषि कहता है कि प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में हे प्रभो ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ ।

हे वज्रिन्! प्रत्येक कर्म के प्रारम्भ में किये जाते हुए इन स्तोत्रों से यह प्रियमेध तेरा अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर पाता है । वह सर्वत्र आपके नियन्त्रण को अनुभव करता है । इस नियन्त्रण के अनुभव के कारण ही वह अपने कर्मों को पवित्र बनाये रखता है और भोगों का शिकार न हो जाने से वज्रतुल्य शरीरवाला बना रहता है ।

भावार्थ -

हम प्रत्येक कार्य को प्रभु-स्मरण के साथ आरम्भ करें ।

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