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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 721
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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इ꣣च्छ꣡न्ति꣢ दे꣣वाः꣢ सु꣣न्व꣢न्तं꣣ न꣡ स्वप्ना꣢꣯य स्पृहयन्ति । य꣡न्ति꣢ प्र꣣मा꣢द꣣म꣡त꣢न्द्राः ॥७२१॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣च्छ꣡न्ति꣢ । देवाः꣢ । सु꣣न्व꣡न्त꣢म् । न । स्व꣡प्ना꣢꣯य । स्पृ꣣हयन्ति । य꣡न्ति꣢꣯ । प्र꣣मा꣡द꣢म् । प्र꣣ । मा꣡द꣢꣯म् । अ꣡त꣢꣯न्द्राः । अ । त꣣न्द्राः ॥७२१॥


स्वर रहित मन्त्र

इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तं न स्वप्नाय स्पृहयन्ति । यन्ति प्रमादमतन्द्राः ॥७२१॥


स्वर रहित पद पाठ

इच्छन्ति । देवाः । सुन्वन्तम् । न । स्वप्नाय । स्पृहयन्ति । यन्ति । प्रमादम् । प्र । मादम् । अतन्द्राः । अ । तन्द्राः ॥७२१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 721
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

(देवा:) = सब प्राकृतिक शक्तियाँ (सुन्वन्तम्) = कुछ-न-कुछ उत्पन्न करते हुए को (इच्छन्ति) = चाहती हैं । (स्वप्नाय न स्पृहयन्ति) = सोनेवाले के लिए उनमें कोई स्पृहा [इच्छा] नहीं होती। (अतन्द्राः) = अलस्यशून्य व्यक्ति (प्रमादम्) = प्रकृष्ट हर्ष को यन्ति प्राप्त होते हैं । 

प्रियमेध प्रभु के अतिरिक्त किसी की कामना तो नहीं करता, परन्तु आत्मतृप्त हो जाने से यह अकर्मण्य नहीं हो जाता । वह सदा क्रियाशील होता है। इसकी क्रियाएँ निर्माणात्मक हैं, अतः यह सब देवों का प्रिय होता है। देवों को निर्माण प्रिय है, दस्युओं को विध्वंस [दस्- to destroy] । यह निर्माण करनेवाला देवों का प्रिय क्यों न होगा ? अन्त में यही मोक्षरूप ऊच्च आनन्द का लाभ करता है।

प्रभु की क्रिया स्वाभाविक है - प्रत्युपकार की अपेक्षा करनेवाली नहीं है, इसी प्रकार प्रियमेध की भी सब क्रियाएँ हुआ करती हैं | इन सब निष्काम क्रियाओं का अन्तिम परिणाम मोक्ष तो है ही ।

भावार्थ -

हम प्रभु की भाँति स्वाभाविक क्रिया करनेवाले बनें ।

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