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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 722
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
इ꣡न्द्रा꣢य꣣ म꣡द्व꣢ने सु꣣तं꣡ परि꣢꣯ ष्टोभन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ । अ꣣र्क꣡म꣢र्च्चन्तु का꣣र꣡वः꣢ ॥७२२॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯य । म꣡द्व꣢꣯ने । सु꣣त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । स्तो꣣भन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ । अ꣣र्क꣢म् । अ꣣र्चन्तु । कार꣡वः꣢ ॥७२२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय मद्वने सुतं परि ष्टोभन्तु नो गिरः । अर्कमर्च्चन्तु कारवः ॥७२२॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राय । मद्वने । सुतम् । परि । स्तोभन्तु । नः । गिरः । अर्कम् । अर्चन्तु । कारवः ॥७२२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 722
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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विषय - कलापूर्ण कर्तृत्व ही अर्चना है
पदार्थ -
इस तृच का ऋषि श्रुतकक्ष कहता है कि (नः गिरः) = हमारी वाणियाँ (इन्द्राय) = उस ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले (मद्वने) = हमारे लिए हर्ष का विजय करनेवाले, अर्थात् अवर्णनीय आनन्द प्राप्त करनेवाले प्रभु का (परिष्टोभन्तु) = सर्वथा स्तवन करें। (कारवः) = [कारु: शिल्पिनि कारके] कलापूर्ण ढंग से क्रिया करनेवाले लोग ही (सुतम्) = संसार के उत्पादक व सर्वैश्वर्य के अधिष्ठाता (अर्कम्) = उपासना के योग्य [अर्च पूजायाम्] प्रभु का (अर्चन्तु) = अर्चन करते हैं ।
इस मन्त्र का व्याख्यान १५८ संख्या पर हो चुका है। इसका भावार्थ यही है कि - परमैश्वर्य व अवर्णनीय आनन्द को उपलब्ध करना है तो जीव प्रभु का स्तवन करे । स्तवन का उत्तम प्रकार यही है कि प्रत्येक क्रिया को सुन्दरता से किया जाए। कर्मों में कुशलता ही योग है। लक्ष्मी सरस्वती
अभ्युदय प्रेय [इह]
निः श्रेयस श्रेय [अमुत्र]
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