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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 723
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
य꣢स्मि꣣न्वि꣢श्वा꣣ अ꣢धि꣣ श्रि꣢यो꣣ र꣡ण꣢न्ति स꣣प्त꣢ स꣣ꣳस꣡दः꣢ । इ꣡न्द्र꣢ꣳ सु꣣ते꣡ ह꣢वामहे ॥७२३॥
स्वर सहित पद पाठय꣡स्मि꣢꣯न् । वि꣡श्वा꣢꣯ । अ꣡धि꣢꣯ । श्रि꣡यः꣢꣯ । र꣡ण꣢꣯न्ति । स꣣प्त꣢ । स꣣ꣳस꣡दः꣢ । स꣣म् । स꣡दः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । सु꣡ते꣢ । ह꣣वामहे ॥७२३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्विश्वा अधि श्रियो रणन्ति सप्त सꣳसदः । इन्द्रꣳ सुते हवामहे ॥७२३॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्मिन् । विश्वा । अधि । श्रियः । रणन्ति । सप्त । सꣳसदः । सम् । सदः । इन्द्रम् । सुते । हवामहे ॥७२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 723
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - सारा धन, सारा ज्ञान
पदार्थ -
(इन्द्रम्) = परमैश्वर्यवाले प्रभु को (सुते) = उन्नति [प्रसव=growth] अभ्युदय व परमैश्वर्य=निःश्रेयस के लिए ['सुते' में निमित्त सप्तमी है] (हवामहे) = पुकारते हैं। उस इन्द्र को (यस्मिन् अधि) = जिसमें (विश्वाः श्रियः) = संसार की सब लक्ष्मियाँ निवास करती हैं तथा (संसदः) = वासनाओं का सम्यक् विनाश करनेवाले [षद् = अवसादन, to kill] (सप्त) = सात छन्द व छन्दोरूप मन्त्र (रणन्ति) = शब्द करते व रममाण होते हैं ।
उल्लिखित शब्दार्थ से यह सुव्यक्त है कि प्रभु की उपासना इसलिए करो कि वे प्रभु ही लक्ष्मी व सरस्वती का अधिष्ठान हैं। प्रभु की उपासना से सांसारिक ऐश्वर्य भी मिलेगा तथा ज्ञानरूप परमैश्वर्य भी प्राप्त होगा । एवं, उपासना अभ्युदय व निः श्रेयस दोनों को सिद्ध करती है, इससे ऐहलौकिक ऐश्वर्य भी प्राप्त होता है और पारलौकिक कल्याण भी सिद्ध होता है ।
भावार्थ -
हम प्रभु के उपासक बनें, क्योंकि सारा धन व सारा ज्ञान उसी में निहित है।
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