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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 727
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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य꣡स्ते꣢ शृङ्गवृषो णपा꣣त्प्र꣡ण꣢पात्कुण्ड꣣पा꣡य्यः꣢ । न्य꣢꣯स्मिन् दध्र꣣ आ꣡ मनः꣢꣯ ॥७२७॥

स्वर सहित पद पाठ

यः꣢ । ते꣣ । शृङ्गवृषः । शृङ्ग । वृषः । नपात् । प्र꣡ण꣢꣯पात् । प्र । न꣣पात् । कुण्डपा꣡य्यः꣢ । कु꣣ण्ड । पा꣡य्यः꣢꣯ । नि । अ꣣स्मिन् । दध्रे । आ꣢ । म꣡नः꣢꣯ ॥७२७॥


स्वर रहित मन्त्र

यस्ते शृङ्गवृषो णपात्प्रणपात्कुण्डपाय्यः । न्यस्मिन् दध्र आ मनः ॥७२७॥


स्वर रहित पद पाठ

यः । ते । शृङ्गवृषः । शृङ्ग । वृषः । नपात् । प्रणपात् । प्र । नपात् । कुण्डपाय्यः । कुण्ड । पाय्यः । नि । अस्मिन् । दध्रे । आ । मनः ॥७२७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 727
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

प्रभु कहते हैं कि हे इरिम्बिठे! (यः) = जो सोम (ते) = तेरा (शृङ्गवृष:- नपात्) = धर्म के शिखर से न गिरनेवाला है। वृषस्य शृङ्ग = शृङ्गवृषः = राजदन्तवत् । यहाँ वृष का परनिपात है। जो (प्रणपात्) = पतन से अतिशेयन बचानेवाला है और (कुण्डपाय्य:) = दाह, जलन, ईर्ष्यादि से रक्षा करनेवाला है [कुडि दाहे]। (नि) = निश्चय से (अस्मिन्) = इस सोम में (ते) = तेरा (मनः) = मन (आदध्रे) = सर्वथा धारण किया जाए। तू सब प्रकार से इसकी रक्षा करनेवाला बन ।

धर्म को वृष कहते हैं, क्योंकि यह सचमुच सुखों की वर्षा करनेवाला है। जब मनुष्य वीर्यरक्षा के लिए अपने मन को दृढ़ निश्चयी बना लेता है तब यह सुरक्षित वीर्य उस संयमी पुरुष को धर्म के शिखर से गिरने नहीं देता ।

यह वीर्य शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला होकर मनुष्य को भी ऊँचा उठाता है, इसके संयम का निश्चय करके ऊर्ध्व-रेतस् बनने का निश्चय करते ही मनुष्य ('निषाद') = पापियों से ऊपर उठकर 'शूद्र' बन जाता है । वीर्य के रुधिर में प्रवेश करते ही यह (विश्) = वैश्य हो जाता है। जब वीर्य इसकी क्षतों = रोगादि से रक्षा करता है तब यह भी (क्षेत्र) = बनता है और जब यह सुरक्षित वीर्य ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, तब यह भी ब्राह्मण बन जाता है । एवं, वीर्य की ऊर्ध्वगति के अनुपात में मनुष्य ऊपर-व-ऊपर उठता जाता है । =

इन दोनों बातों से बढ़कर बात तो यह है कि यह संयमी पुरुष ईर्ष्या जलन व द्वेषादि की वृत्तियों से ऊपर उठ जाता है । वीर्य (कुण्ड) = ईर्ष्या आदि से (पाय्य) = रक्षा करनेवाला है।

भावार्थ -

हमारी सारी शक्ति वीर्य-र - रक्षा पर केन्द्रित हो, जिससे हम धर्म के शिखर से न गिरें । उन्नति करते-करते हम उन्नति-पर्वत के शिखर पर पहुँचें तथा ईर्ष्या-द्वेष से ऊपर उठ जाएँ।

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