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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 729
ऋषिः - कुसीदी काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
वि꣣द्मा꣡ हि त्वा꣢꣯ तुविकू꣣र्मिं꣢ तु꣣वि꣡दे꣢ष्णं तु꣣वी꣡म꣢घम् । तु꣣विमात्र꣡मवो꣢꣯भिः ॥७२९॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣द्म꣢ । हि । त्वा꣣ । तुविकूर्मि꣣म् । तु꣢वि । कूर्मि꣢म् । तु꣣वि꣡दे꣢ष्णम् । तु꣣वि꣢ । दे꣣ष्णम् । तु꣣वी꣡म꣢घम् । तु꣣वि꣢ । म꣣घम् । तुविमात्र꣢म् । तु꣣वि । मात्र꣢म् । अ꣡वो꣢꣯भिः ॥७२९॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्मा हि त्वा तुविकूर्मिं तुविदेष्णं तुवीमघम् । तुविमात्रमवोभिः ॥७२९॥
स्वर रहित पद पाठ
विद्म । हि । त्वा । तुविकूर्मिम् । तुवि । कूर्मिम् । तुविदेष्णम् । तुवि । देष्णम् । तुवीमघम् । तुवि । मघम् । तुविमात्रम् । तुवि । मात्रम् । अवोभिः ॥७२९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 729
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - चार रूप
पदार्थ -
कुसीदी काण्व कहता है कि हे प्रभो! आप ज्ञान देकर हमारा रक्षण करते हैं । (अवोभिः) = आप से किये जाते हुए इन रक्षणों से हम आपको (हि) = निश्चयपूर्वक (तुविकूर्मिम्) = बहुकर्मयुक्त (विद्म) = जानते हैं। आपने हमारे रक्षण के लिए किस प्रकार द्यु, अन्तरिक्ष व पृथिवीलोक में ग्यारह-ग्यारह देवताओं का निर्माण किया है, उसे देखकर हम आपका स्मरण 'तुविकूर्मि' के रूप में करते हैं ।
एक व्यक्ति हमें सब-कुछ नहीं दे सकता। प्रभु सब-कुछ देते हैं। क्या प्रजा? क्या पशु ? क्या ब्रह्मवर्चस् और क्या अन्नाद्य ?
हम आपको (तुविदेष्णम्) = महान् दाता (विद्म) = जानते हैं। आपने हमारे पोषण के लिए ही कितने विविध अन्नों, फलों, शाकों व अन्य वनस्पतियों का निर्माण किया है, किस प्रकार आपने यह शरीर व ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा मन व बुद्धि का दान किया है।
आपके ऐश्वर्य का चिन्तन करते-करते बुद्धि चकरा जाती है और हम आपको (तुवीमघम्) = अनन्त ऐश्वर्यवाले के रूप में स्मरण करते हैं । जीवों का ऐश्वर्य शान्त है। आपका कोई माप भी तो नहीं, आप सर्वव्यापक हैं, अतः हम (तुविमात्रम्) - शब्द से आपका स्मरण करते हैं। ‘मात्र' शब्द का अर्थ ज्ञान भी होता है [मीयते] सो आप अनन्त ज्ञानवाले हैं। आपके ये सब ज्ञान, बल व क्रियाएँ स्वाभाविक हैं। जीव के हित के लिए स्वभावतः इनकी प्रवृत्ति होती है ।
भावार्थ -
हे प्रभो ! आप हमें ज्ञान प्राप्त कराइए, जिससे हम आपके रक्षण के योग्य बन सकें ।
टिप्पणी -
नोट – तुविकूर्मिम् ब्रह्मचर्य में खूब क्रियाशील–‘सुखार्थिनः कुतो विद्या ।'
तुविदेष्णम्-गृहस्थ में खूब देनेवाला—'अपञ्चयज्ञो मलिम्लुचः'।
तुवीमधम्=वानप्रस्थ में सतत स्वाध्याय से ज्ञान वृद्धि |
तुविमात्रम् = संन्यास में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्' की वृत्ति से व्यापकता।