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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 752
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - उषाः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
4
उ꣢दु꣣स्रि꣡याः꣢ सृजते꣣ सू꣢र्यः꣣ स꣡चा꣢ उ꣣द्य꣡न्नक्ष꣢꣯त्रमर्चि꣣व꣢त् । त꣡वेदु꣢꣯षो꣣ व्यु꣢षि꣣ सू꣡र्य꣢स्य च꣣ सं꣢ भ꣣क्ते꣡न꣢ गमेमहि ॥७५२॥
स्वर सहित पद पाठउत् । उ꣣स्रि꣡याः꣢ । उ꣣ । स्रि꣡याः꣢꣯ । सृ꣣जते । सू꣡र्यः꣢꣯ । स꣡चा꣢꣯ । उ꣣द्य꣢त् । उ꣣त् । य꣢त् । न꣡क्ष꣢꣯त्रम् । अ꣣र्चिव꣢त् । त꣡व꣢꣯ । इत् । उ꣣षः । व्यु꣡षि꣢꣯ । वि꣣ । उ꣡षि꣢꣯ । सू꣡र्य꣢꣯स्य । च꣣ । स꣢म् । भ꣣क्ते꣡न꣢ । ग꣣मेमहि ॥७५२॥
स्वर रहित मन्त्र
उदुस्रियाः सृजते सूर्यः सचा उद्यन्नक्षत्रमर्चिवत् । तवेदुषो व्युषि सूर्यस्य च सं भक्तेन गमेमहि ॥७५२॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । उस्रियाः । उ । स्रियाः । सृजते । सूर्यः । सचा । उद्यत् । उत् । यत् । नक्षत्रम् । अर्चिवत् । तव । इत् । उषः । व्युषि । वि । उषि । सूर्यस्य । च । सम् । भक्तेन । गमेमहि ॥७५२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 752
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - पति व सूर्य
पदार्थ -
(सचा उद्यन्) = उष: के साथ ही - अनुपद ही उद्यन्-उदय होता हुआ (सूर्यः) = सूर्य (उस्त्रियाः) = किरणों को (उत् सृजते) = ब्रह्माण्ड में फेंकता है। घर में पति को भी चाहिए कि वह सूर्य का अनुकरण करता हुआ पत्नी के साथ गृह में प्रवेश करे तो गृह में प्रसन्नता का प्रकाश-ही- प्रकाश भर जाए, उसे देखकर सबके हृदय में भय का संचार न हो जाए ।
(उस्त्रियाः) = शब्द का अर्थ ‘भोग' भी है, ये (उत्स्स्राविणः) = शक्ति को बाहर ले जानेवाले होते हैं । पति-पत्नी के साथ उन्नति के मार्ग पर जाता हुआ इन भोगों को छोड़ देता है । यह गृहस्थ में भी भोग की वृत्तिवाला नहीं होता। भोगप्रवण जीवन न होने से वह गृहस्थ चमक उठता ।
सूर्य-किरणों को फेंकता हुआ भी (नक्षत्रम्) = कभी क्षीण नहीं होता, (अर्चिवत्) = सदा प्रकाश की ज्वालाओं से सम्पन्न रहता है। अनन्तकाल से सूर्य प्रति दिन लाखों टन प्रकाश फेंकता हुआ भी वैसा ही बना है। गृहस्थ भी भोगों को परे फेंकता है— उनमें फँस नहीं जाता तो अक्षीण शक्ति बना रहता है [न+क्ष] तथा (अर्चिवत्) = उसकी चमक उसका साथ नहीं छोड़ती। उसकी बुद्धि आदि की शक्तियाँ सठिया नहीं जातीं ।
यहाँ उषा व सूर्य के मिष से पति-पत्नी का उल्लेख हुआ है। ये दोनों एक शब्द में 'अश्विनौ कहलाते हैं। ये अश्विनौ ही प्रस्तुत मन्त्र की देवता है। ये आराधना करते हैं कि हे (उष:) = उषाकाल! (तव इत् व्युषि) = तेरे निकलने पर (सूर्यस्य च) = और सूर्य के निकलने पर (भक्तेन) = उपासना से [भज्+क्त] (संगमेमहि) = हम सङ्गत हों । वस्तुतः उषःकाल प्रारम्भ होते ही गृहस्थ को सपरिवार उपासना में लीन होने का प्रयत्न करना चाहिए और कम-से-कम सूर्योदय तक यह उपासना चलनी चाहिए। जिस भी गृहस्थ में यह उपासना क्रम चलता है, वहाँ सन्तान सद्गुणी बनती है ।
इन मन्त्रों का ऋषि वसिष्ठ है, जिसका शब्दार्थ वशियों में श्रेष्ठ व बसानेवालों में उत्तम है। उत्तम वशी गृहस्थ ही उत्तम बसानेवाला भी होता है ।
भावार्थ -
प्रत्येक पति सूर्य का शिष्य बने तथा पति-पत्नी उपासना को दैनिक कार्यक्रम में प्रमुख स्थान दें ।
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